सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

योग-तंत्र साधना आरंभ करने वालों के लिए अनुकूल समय


आप यदि योग या तंत्र की किसी भी विधि को अपनाने या साधना शुरू करने के बारे में सोच रह हैं, तो पितृपक्ष पूरा होते ही यह समय शुरू होने वाला है। इस समय अभ्यास करना आसान होता है। प्राकृतिक रूप से हमारी इन्द्रियां अधिक संवेदनशील रहती हैं। मन अधिक जिज्ञासु रहता है। दोनो संध्याकाल अधिक आकर्षक होते हैं।
इस समय रोगों के शारीरिक तथा मानसिक रोग एवं उनके लक्षण आसानी से बाहर आकर प्रगट हो जाते हैं। इन कारणों से भी आरंभ करने के लिये यह समय अनुकूल है।
चौमासा मतलब चार महीने- सावन, भादो, आश्विन और कार्तिक। आत्म कल्याण, स्वास्थ्य, सत्संग, आध्यात्मिक ज्ञान आदि की साधना शुरू करने के लिये ये 4 मीने बहुत अनुकूल होते हैं। आरंभ के दो महीने तैयारी और तनाव मुक्ति के लिये अधिक उपयुक्त होते हैं तो बाद के 2 महीने आरंभ करने के लिये अधिक अनुकूल हैं।
मेरी समझ से कि संसारिक प्रभाव, धन-संपत्ति बढ़ाने आदि के लिये तो देवोत्थानी के बाद का ही समय उत्तर भारत के लिये अनुकूल है। इसीलिये विवाह आदि का विधान उस समय है। पता नहीं कैसे इसमें भी विजया दशमी को किस आधार पर सालाना युद्ध आरंभ करने तिथि मानी गई।

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

शिवरात्रि पर प्रस्ताव


केवल पराक्रमी लोगों के लिये
पारंपरिक विद्या शिक्षण-प्रशिक्षण के दो तरीके होते हैं। अपने और पराक्रमी लोगों के लिये अलग और दूसरे तथा कमजोर लोगों के लिये अलग। पहली पद्धति से ही उत्कृष्ट कोटि की शिक्षा हो पाती है और यह सामान्य से बिलकुल अलग होती है।

सौभाग्य से मुझे दोनों प्रकार की शिक्षा मिली। मगध बहुत पहले से पहली प्रकार की शिक्षा में अग्रणी रहा, फलतः वह सदैव ईर्ष्या का पात्र भी रहा। मैं ने बहुत विचार के बाद यह तय किया कि 100 निठल्ले शिष्यों की जगह 10 पराक्रमी शिष्य बनाया जाय ताकि अगली पीढ़ी तक मेरी पूरी विद्या भी पहुंचे और उसमें से कुछ मुझसे भी आगे बढ़ें।

कई प्रयोगों के बाद अब खुल कर बोलने की हिम्मत भी जुटी है। ध्यान योग और कुंडलिनी साधना में तो शिष्य लगे हुए हैं। उनकी तीव्र एवं व्यापक प्रगति से मैं संतुष्ट हूं। हठ योग एवं प्राण विद्या के क्षेत्र में अभी पद रिक्त हैं। ऐसे किसी भी व्यक्ति को जिसकी उम्र 40 साल से कम हो, वह स्वस्थ हो, उसे उदाहरण के लिये मोटे तौर पर बाबा रामदेव जी तक की दक्षता तक घर गृहस्थी या पढ़ाई-लिखाई के साथ मैं मात्र 1 वर्ष में पहुंचाने का विश्वास रखता हूं।
यह विद्या परंपरा में गुप्त रही है क्योंकि सबके वश की बात नहीं है। प्राणायाम करने की ट्रेनिंग तो खुले आम मिलती ही है, यह हुई दूसरे प्रकार की विद्या। पहले प्रकार में सीधे तन-मन को प्राण ऊर्जा के प्रवाह में डाल दिया जाता है। फिर शरीर स्वतः आसन तथा प्राणायाम करने लगता है। वह उस अधिक मात्रा तथा अवधि तक प्राणायाम करता है कि सामान्यतः आप सोच ही नहीं सकते और थकान का नामोनिशान नहीं होता। इसके साथ अनेक आसन, मुद्रा, बंध, तथा नेति, धौती आदि जटिल मानी जाने चाली क्रियाएं भी सिखाई जाती हैं। इसके बाद आगे की साधना भी सरल हो जाती है। साथ ही हठयोग प्रदीपिका, घेरंड संहिता जैसी पुस्तकों का अध्ययन भी आसानी से हो जाता है।

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

प्रयास की दृष्टि से एक सीधा वर्गीकरण

 प्रयास की दृष्टि से एक सीधा वर्गीकरण
योग साधना की विधियों के अनेक वर्गीकरण किये जाते हैं। ये वर्गीकरण भी कई बार उलझा देते हैं खाशकर जब किसी एक ही धारा में कई विरोधी शैलियों की साधना की जाती हो। आसन ये ले कर ध्यान तक में यह दुविधा देखी जाती है। किसी के लिये आसन-प्राणायाम आदि का अभ्यास बहुत जरूरी है किसी के लिये सामान्य किसी के लिये न के बराबर। यही बात जप, मुद्रा आदि के मामले में भी आ जाती है।
जब कोई नया आदमी मेरे पास समझने-जानने आता है तो मैं प्रयास की दृष्टि से एक सीधा वर्गीकरण बताता हूं। 1- करने की प्रधानता वाला, 2- होने देने की प्रधानता वाला, 3- होने की प्रधानता वाला। इनमें सबसे गहरी अनुभूति होने की है। यह सबसे प्रामाणिक है। इसमें व्यक्ति स्वयं प्रमाण है कि वह वैसा हो गया। वह न केवल जान गया बल्कि वैसा हो गया। यह पद्धति/विधि आसन से ले कर ध्यान समाधि तक भी लागू हो सकती है। इस पद्धति से अभ्यास करने के लिये पहले होने देने की पद्धति से अभ्यास करना होता है। 
इसके लिये किसी विशेष प्रयास की जगह अपने शरीर या वातावरण में स्वतः हो रही घटनाओं को स्वीकार करने की साधना करनी होती है। अपनी सांस का अनुभव करना इस मार्ग की सबसे प्रचलित विधि है। इसे तो अनेक लोग जानते हैं लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि बिना संकल्प एवं प्रयास के अनेक आसन, प्रणायाम, मुद्रा, बंध, जप आदि जटिल क्रियायें सीखीं एवं अनुभूत की जाती हैं। आज भारत की इस सबसे प्रामाणिक, सरल एवं सुगम विधि को सिखाने वाले बहुत कम लोग हैं। इस मार्ग पर लोगों का विश्वास ही नहीं होता कि बिना प्रयास के कैसे कोई क्रिया या अनुभव संभव है? पिछली शताब्दी में ही मेरे गृह जिले भोजपुर में एक अनपढ़ संत हुए ध्यानयोगी श्री मधुसूदनदास जी। वे इसी विधि का प्रयोग करते थे। मौन में ही सारी शिक्षा, वह भी करने की नहीं, बस होने देने की और हो जाने की। यह सब पूर्णतः पारिवारिक रूप से होता था। घर के 5 साल से 95 साल तक के सदस्यों तक के लिये बस एक विधि कि कहीं दरी बिछा कर शरीर के लेटने-लोटने तक का फासला रख कर बस आंखमूंद कर बैठिये। आगे का का सारा अभ्यास स्वतःं।
मैं अपने नास्तिक मित्रों को या जो विशुद्ध अनुभव अभ्यास करना चाहते हैं, उन्हें यही विधि बताता हूं। इसी प्रकार जो मेरे अनन्य हैं और प्रतीज्ञा करते हैं कि जब तक अनुभव न हो जाय उस विषय पर कोई योग-तंत्र या आध्यात्मिक साहित्य नहीं पढूंगा उन्हें इसी विधि से सिखाता हूं। 
इसके भी कुछ नकारात्मक प़क्ष हैं, जैसे- ऐसे अभ्यासी को केवल भावनाप्रधान या कल्पना प्रधान बातों से आप न गुमराह कर सकते हैं न रोक सकते हैं। बहानेबाजी की सुविधा समाप्त हो जाती है। बच्चे-बच्चियों में इतना आत्म विश्वास बढ़ता है कि वे सवाल पर सवाल पूछने लगते हैं और कई बार उत्तर भी देते हैं क्योंकि उम्रदराज लोगों की तुलना में वे जल्दी सीखते हैं। यह तो सामाजिक संकट हुआ। खतरा तब होता है जब कई बार शरीर के स्वतः संचालित कार्य प्रणाली में कल्पनातीत परिवर्तन होने लगता है। इसे रोकना या नियंत्रित करना बहुत कठिन होता है। दूसरे मार्ग के अभ्यासी गुरु इसे रोक ही नहीं पाते। क्रमशः...

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

नवरात्रि उपहार -9

शक्ति की व्यापकता मानने वालों के लिये
हे शक्ति! आप ही पूर्णतः भगवती हैं क्योंकि आप में भग शब्द के सारे अर्थ सही हैं- तेज, सृष्टि का स्थान, आदि। आप आदि शक्ति हैं, मैं भी यही कहता हूं, आदि शक्ति और अनंत शक्ति ही आप हैं। इसलिये आपको किसी सीमित रूप में देखने में चाहे जो भी सुविधा हो, आपको किसी रूप विशेष में सीमित मानना अपराध है। 
आप ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति हैं। आपकी इस व्यापक सत्ता को स्वीकार करने वालों, उसका आदर करने वालों पर अपनी कृपा सदा की भांति बनाये रखेंगी, यही आशा और भरोसा है। जो इनमें से किसी शक्ति से कमजोर है, उस पर विशेष कृपा करें ताकि कमजोर की भी रक्षा हो सके। इससे मुझे सीधा लाभ होगा क्योंकि मैं तो हर हाल में कमजोर हूं। भगवती! प्रणाम।

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

नवरात्रि उपहार - 8 अधिकारवादी नारियों के लिये


स्त्री द्वारा स्त्री की पूजा वाले मंत्र और स्तुतियां क्यों नहीं हैं?
दुर्गा या शक्ति के अन्य रूपों की उपासना वाले संस्कृत श्लोकों का अर्थ पूछ कर मेरी पत्नी अक्सर मुझे फंसा देती हैं। एक सीघी सी टिप्पणी कि यह तो एक पुरुष द्वारा स्त्री की स्तुति हुईं स्त्री द्वारा स्त्री की स्तुति तो नहीं हुई।  देवी की पूजा तो स्त्री भी करती है, उसे भी पूजा स्तुति का अधिकार है फिर स्त्री द्वारा स्त्री की पूजा वाले मंत्र और स्तुतियां क्यों नहीं हैं? 
मैं ने कई ब्राह्मण/ब्राह्मणेतर स्त्री पुरुष साधक-साधिकाओं से पूछा। किसी का उत्तर संतोषजनक नहीं रहा कि चैतन्य नपुंसक लिंग है, मानीय चेतना स्त्री नहीं है, वह पुरुष अर्थात नर है, स्त्री केवल पति की सहयोगी मात्र होना चाहिये, वगैरह। कई लाल कपडों वाली साधिकाओं से पूछा। गेरुआ वाली संन्यासिनें तो अपने को स्त्री संबोधन भी देना नहीं चाहतीं,  वे तो ‘‘शिवा अहम्’’ भी नहीं कहतीं, वे कहती हैं- ‘शिवोहम्’ मैं शिव हूं। बहुत मुश्किल सा हो गया उत्तर पाना। 
खैर, खोजिये तो मिलता है के सिद्धांत से मुझे मिल गया। पूरी परंपरा मिली, जो संस्कृत पढ़े मर्दों और अंग्रजी पढ़ी औरतों को शायद ही पसंद आये लेकिन इसे झुठला देना आसान नहीं है। दरसल बेईमानी साधना की स्तुतियों के स्तर पर नहीं हो कर भाषा के स्तर पर है। न केवल वैदिक संस्कृत अपितु लौकिक संस्कृत अर्थात आज जो संस्कृत प्रचलित है, उसे भी बोलने का समाज स्वीकृत अधिकार भारतीय नारियों को नहीं रहा। उनकी जिम्मेवारी बस केवल उसे समझने और पढ़ने तक की रही। संस्कृत के सारे नाटक इस बात की पुष्टि करते हैं। नारी पात्रों के संवाद प्राकृत में लिखे गये हैं।
तब फिर स्त्री द्वारा स्त्री की पूजा वाले मंत्र और स्तुतियां? जी हां, ये सारी प्राकृत और लोक भाषा में होती हैं। इसीलिये सामाजिक चलन भी है कि स्त्री द्वारा देवी की पूजा में ब्राह्मण या पुरुष की अनिवार्यता नहीं होती। मंत्र की जगह गीत गाये जाते हैं। इस बात की पुष्टि तंत्र के ग्रथ भी करते हैं। शाक्त प्रमोद में भी देवी की स्तुति करते हुए संस्कृत में प्राकृत और गद्य के बारे में कहा गया है कि देवी को प्राकृत एवं गद्य में की गई रचनाएं प्रिय हैं। ‘‘प्राकृत -गद्यरचनाप्रिया’’। इसलिये संस्कृत के पुरुषवाद से बचना हो तो प्राकृत, गद्य या किसी भी आम भाषा में ही सीधा संवाद करने का आपको हक है। बस केवल साधना में संस्कृत वर्चस्व के प्रदर्शन से आपको अपने आप को बचाना होगा। दोनों मजा नहीं मिल सकता कि मैं पुरुषों की तरह संस्कृत के मंत्र क्यों न पढूं?

नवरात्रि उपहार -7 मेरी छोटी सी स्तुति का अगला भाग

नवरात्रि उपहार -7 मेरी छोटी सी स्तुति का अगला भाग
हे मूल प्रकृति! महामाया! आपका रूप ज्यामितीय है, यह भारतीय परंपरा में मान्य है तो उसका वर्णन केवल ज्यामितीय ही क्यों हो? ज्यामितीय भाषा पर ही इतनी कृपा क्यों? मुझे समझ में नहीं आता कि बीज गणित और अंक गणित की स्तुति से आप प्रसन्न क्यों नहीं होगीं? क्या ये दोनों ज्यामिति को नहीं मानते? आप काल की कला हैं। आपसे कलन शुरू होता है तो आप कलन गणित से क्यों नहीं प्रसन्न होतीं?
क्षमा करें, वस्तुतः तो आपकी प्रसन्नता और कृपा तो इन्हीं भाषाओं में आपके वर्णन करने वालों पर है। इनसे भी कुछ गलतियां हो रही हैं, शायद इन्होंने भी वर्णमाला वालों की तरह झूठे शब्द गढ़ लिये हैं। हे भगवती! मुझे कलन की भाषा सिखा दें ताकि मैं आपकी स्तुति, आपके रूप का वर्णन एक ही साथ वर्णमाला, उससे बने शब्दों और वाक्यों के साथ ज्यामिति, अंक गणित और बीज गणित में भी कर सकूं।

नवरात्रि उपहार -6 मेरी छोटी सी स्तुति

नवरात्रि उपहार -6 मेरी छोटी सी स्तुति
हे भगवती! जैसा कि लोग कहते हैं और कहते आये हैं कि आपके बारे में पूरी तरह और ठीकठाक कहना मेरे लिये संभव नहीं है। अतः आप जैसी भी हैं, मैं अपना शिर झुकाता हूं कि क्योंकि यह अपने से बड़े और वात्सल्यपूर्ण के सामने स्वतः झुक ही जाता है।
आपके विग्रह और प्रतीकों के बारे में जानकारी बहुत कम है। अतः मैं मोटे तौर पर और सीधे ढंग से ही कुछ कह सकता हूं कि आप शक्ति हैं और मुझमें जो भी शक्ति है, वह आप हैं। एक मनुष्य होने के नाते ज्ञान मतलब सांसारिक बोध, इच्छा और उसके लिये कुछ करने की शक्ति। इतना ही नहीं इस दुनिया की चीजों में जो ताकत आती है, वह आप हैं। पता नहीं मैं क्या हूं? शायद केवल एक अस्तित्व बोध क्योंकि मेरी चेतना भी तो आप ही हैं।
आप बहुत कठोर भी हैं। शायद हमें होश में रखने के लिये। आप जड नहीं हैं, पूर्ण चेतन हैं। आपकी सांसें चलती हैं। जीवों के भीतर छोटे स्तर पर और बड़े स्तर पर इस पूरे संसार में। नियमित रूप से हर ढाई घड़ी में आप अपनी सांस बदलती हैं। जो आपके साथ अपनी सांसों का तालमेल नहीं बनाता वह आपके दंड का भागी होता है।
आपके सुंदर, असुंदर सारे रूप हैं। हमने तो आपके इस विराट रूप से ही ये सारे पैमाने लिये हैं। आपकी सबसे बड़ी कृपा की चर्चा पता नहीं लोग क्यों बहुत कम करते हैं। आपने मनुष्य को भाषा दी, अनुभूति और कल्पना को व्यक्त करने के लिये, सच कहूं तो आप भाषा के रूप में हमारे भीतर हैं। हमने ही बहुत सारे झूठे शब्द गढ़ लिये और स्वयं उलझ गये। भारत के लोगों पर तो विशेष कृपा की और मौलिक वर्णमाला दी। 
आपके ये मूल वर्ण निरर्थक नहीं हैं बल्कि अनेक अनुभूतियों, संवेदनाओं की उत्पत्ति के साथ तौर पर जुड़े हुए हैं। लोग धीरे-धीरे आपकी वर्णमाला और आपके इस ‘‘मालिनी’’ रूप को भूलते गये। बस कुछ ही लोगों को केवल यह नाम याद है। 
आपका रूप न केवल ध्वन्यात्मक हैं बल्कि वह विंदुओं, रेखाओं, वलयों, वृत्तों से भरा पूऱा है। हे प्रकृति! आपमें  इन सबमें से क्या नहीं है? फिर भी कितने अचरज की बात है कि विंदुओं, रेखाओं, वलयों, वृत्तों का अध्ययन करने वाले अपने को नास्तिक कहते हैं और आपके विराट रूप को न मानने वाले असली नास्तिक आपके सूक्ष्म रूप एवं माया की स्तुति करने वालों को ही नास्तिक कह रहे हैं। कहने को और भी कुछ है, जो फिर सांस ले कर कहूंगा। कहूंगा।