सोमवार, 9 मई 2011

चित्तसाम्य , वज्रोली-सहजोली साधना एवं ‘लाग बैठना

चित्तसाम्य , वज्रोली-सहजोली साधना एवं ‘लाग बैठना’

मगध रहस्यविद्या की विधियों के आविष्कार की भूमि रहा है। इसने गोपनीय मानी जाने वाली विधियों को जनसुलभ बनाया है, भले ही वे काल के प्रवाह में पुनः लुप्त या गुप्त हो गई हैं। काम ऊर्जा के रूपांतरण की विधियों के साथ भी ऐसा ही हुआ है। काम ऊर्जा के रूपांतरण की विधियों को समझे बिना यहाँ के मूर्ति शिल्प, अनुष्ठान एवं कई अन्य विधियों को समझ पाना संभव नहीं है।
हरगौरी की पालकालीन प्रतिमाएँ हर गाँव मुहल्ले में मिलती हैं जिसमें गौरी शिव के आलिंगन मंे उनकी एक जाँघ पर बैठी हुई होती हैं। शिव का बायाँ हाथ गौरी के बाएँ स्तन पर रहता है। इतना हीं नहीं नग्न शिव का लिंग ऊपर की ओर खड़े रूप में चित्रित रहता है।
दिगंबर जैन नंगे घूमते रहते हैं। मगध जैनियों एवं विशेषकर दिगंबर जैनों का क्षेत्र है। उनके यहाँ उच्च साधना में नग्नता ही दिव्यत्व है। बौद्ध परंपरा की दृष्टि से भी युगनद्ध संभोगकालीन रूप ही दिव्यतम रूप है जिसका चित्रण तिब्बती थंका में रहता है। मगध के भी कई मंदिरों में खजुराहों की भाँति आकृतियाँ बनी हुई हैं। बौद्ध तांत्रिकों ने इस साधना को विविध नामों से पुकारा है जिसके ‘वसंततिलक योग’ एवं ‘बोधिचित्त का उत्पाद’ ये दो अधिक प्रचलित नाम हैं।
काम ऊर्जा को संचित-संप्रेषित करने के कुछ अनुष्ठान आज भी स्त्रियों के द्वारा अनुष्ठित होते हैं। किसी युवती को चुचुक के मर्दन से जो उत्तेजना होती है वैसा ही अनुभव और उत्तेजना उसके होठ या अंगूठे को धीमी गति से सहलाने से होती है यदि वह पूर्वस्मृति के आधार पर उत्तेजना के पूर्वानुभव का स्मरण कर ले। सिंदूर लगाकर अंगूठे को मलने पर उत्तेजना और बढ़ती है। इससे भी यदि पर्याप्त उत्तेजना न हो तो स्त्रियाँ कामोत्तेजक हरकतें करती हैं। यह अनुष्ठान आज भी प्रचलित है। लड़के की शादी के समय लड़के की माँ को ऐसा अनुष्ठान औरतें संपन्न्ा कराती हैं। इसे ‘लाग बैठना’ कहते हैं।
इन सभी मामलों की समझ काम ऊर्जा के रूपांतरण की विधियों के रहस्य को जान लेने पर आसानी से हो जाएगी। वज्रोली एवं सहजोली साधना इस विधि का एक स्थूल उदाहरण है। चित्त का साम्य एवं काम ऊर्जा का रूपांतरण, प्रक्षेप आदि जटिल विधियाँ हैं।
भारतीय साधना परंपरा मेें योग की दृष्टि से चित्त का समत्त्व भाव में होना साधकांे का अभीष्ट होता है। ’ समत्त्व योग उच्यते’।
तंत्र धारा कुंडलिनी-जागरण को अति महत्त्वपूर्ण मानती है। कंुडलिनी जागरण के उपायों में एक उपाय वज्रोली/सहजोली मुद्रा का अभ्यास है जिससे मूलाधार चक्र स्पंदित/जागृत होकर अपने भीतर से सुप्त कंुडलिनी शक्ति के ऊर्ध्वगमन में सहायक होता है। इस अवस्था में जब मूलाधार चक्र जागृत होता है तब उस समय की अनुभूति संभोगकालीन अनुभूतियों की भाँति होती है। जननांगों के आसपास आकंुचन-प्रसारण (वास्तविक या केवल उनकी अनुभूतिमात्र) लिंगोद्रेक, योनि का सिकुड़ना-फैलना, फड़कना, उत्तेजना की अनुभूति एवं उससे आगे संभोगकालीन वे सारी अनुभूतियाँ, जो स्नायु-संस्थान में होती हैं, सब इस अवस्था में होती हैं। साधक वीर्यस्खलन रोककर ऊर्जा/अनुभूति को ऊर्ध्वमुख करके कुंडलिनी जागरण की दि शा में अग्रसर होता है।
इस अभ्यास को हठयोग परंपरा में मूलबंध, अष्श्विनीमुद्रा आदि के साथ किया जाता है। काम ऊर्जा से सुपरिचित होने एवं उसपर नियंत्रण स्थापित करने के लिए यह प्रयास मानसिक स्तर पर किया जाता है। मंत्रयोग में मंत्र एवं ध्यानयोग में ध्यान से यही साधना की जाती है।
इस अवस्था में जो अ˜ुत अनुभूति होती है वह योगियों एवं भोगियों, दोनों के आकर्षण का विषय शताब्दियों से रही है। विविध धाराओं के लोगोें ने इस अवस्था तक पहुँचने के अनेक उपाय ढ़ूढ़े हैैं जो सामान्य लोगों की दृष्टि में अत्यंत विरोधी लगते हैं किंतु वस्तुतः संगत होते हैं।
हठयोग प्रदीपिका का पद्य उस अवस्था वि शेष का वर्णन करता है।
चित्ते समत्वमापन्ने वायौ व्रजति मध्यमे।
तदामरोली वज्रोली सहजोली प्रजायते।।
चित्त के समत्व भाव में आने पर इड़ा एवं पिंगला, दोनांे में बहने वाली वायु सुषुम्ना पथ में (बीच वाले में) एक होकर जाती है तब वज्रोली, सहजोली उत्पन्न हो जाते हैं।
यहाँ वज्रोली-सहजोली की सहज उत्पत्ति को स्वीकार किया गया है। यह पद्य चतुर्थ उपदेश में आता है। इसके पूर्व विस्तार से वज्रोली, सहजोली की प्रक्रिया बताई गई है।
साम्यावस्था में पहुँचने के अनेक मार्ग अनेक परंपराओं में बताए गए है किंतु अपनी-अपनी परंपरा (संप्रदाय) के प्रति अत्यधिक श्रद्धा एवं दूसरी परंपरा का ज्ञान न होने से लोगों के मन में भ्रांतियाँ एवं दुराग्रह उत्पन्न होते हैं।
यदि पूरी प्रकिया को ध्यान में रखा जाय तभी संगति बनेगी। आगे कुछ परंपराओं की चर्चा कर उनके संबधों को प्रगट करने का प्रयास किया जाएगा।
परम लक्ष्य - सहस्रार में शिव सामरस्य, निर्वाण, मुक्ति, पूर्णानंदावस्था।
उपाय - कुंडलिनी-उत्थान षट्चक्रभेदन, व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास।
प्रारंभिक उपाय
(क) मूलाधार चक्र मेें उपस्थित कुंडलिनी के जागरण हेतु हठयोग की
प्रक्रियाएँ। वज्रोली, सहयोगी आदि का अभ्यास।
(ख) प्राणायाम द्वारा सुषुम्ना-मार्ग में प्रवेश का उपाय।
(ग) ध्यानविधि द्वारा चित्त की समत्वावस्था के विस्तार का उपाय।
इस विषय को यदि हम अवस्था-विकास की दृष्टि से देखें तो मतभेद कम नजर आएगा किंतु यदि इसे किसी परंपराविषेष की दृष्टि से देखें तो तीव्र विरोध नजर आएगा।
यहाँ केवल प्राथमिक चरण की साधना-पद्धतियों के आपसी संबध मुख्य रूप से विवेच्य हैं क्योंकि मध्य स्तर एवं अंतिम स्तर का भेद प्रायः नामकरण का होता है स्वरूपगत नहीं।
प्राथमिक उपायों के अवलंबन के बाद ब्रह्मानंद की छाया की भाँति आनंद देनेवाला कामानंद प्राप्त होता है। यह कामानंद भोगी एवं योगी दोनों के आकर्षण का विषय है। सामान्य व्यक्ति का कामानंद क्षणिक एवं आवृत्ति के चक्कर में डालने वाला है। साधक/योगी का कामानंद तुलनात्मक रूप से दीर्घकालीन, आवृत्ति को कम करते हुए स्थिरता प्रदान करने वाला एवं ब्रह्मानंद की ओर अग्रसर कराने वाला है। एक के पास स्खलन एवं प्रजनन का अनुभव है तो दूसरे के पास वीर्य-निरोध एवं मूलाधार से ऊपर कुंडलिनी को अग्रसर करने का अनुभव है।
संक्षेप में, अब विविध विधियों की चर्चा की जा रही है जिससे तुलनात्मक समीक्षा करने में सुविधा होगी।
हठयोग - इस परंपरा में आसनों में सिद्धासन या सिद्धयोनि आसन की साधना कराई जाती है। मूलबंध एवं अ श्विनी मुद्रा का अभ्यास कराया जाता है, वज्रोली एवं सहजोली सिखाई जाती है।
ध्यानयोग - किसी भी धारणा के दृढ़ होने एवं रेचन के बाद मूलाधार पर मन को एकाग्र करने या मूलाधार से संबद्ध गतिविधियों का साक्षी भाव से दर्शन करने की प्रक्रिया सिखाई जाती है। मंत्र घ्वनियों की आवृत्ति एवं ध्यान से भी यही अनुभूति होती है।
वामाचार
किसी भी उपाय से जननांगो को उत्तेजित करना, घर्षण करना और उस अनुभूति को धारण करने का सामर्थ्य विकसित करना। इसमें भी वीर्य/रज का संधारण अपेक्षित है किंतु स्खलन की बहुत चिंता नहीं है। सामर्थ्य को इतना विकसित किया जाता है कि काम का वेग साधक को विचलित न कर सके एवं साधक अपनी उत्तेजना को इच्छित दि शा में प्रवाहित कर सके।
सहजयोग
इसमें भी भ्रूमध्य या साँस की गति या अन्य किसी आलंबन में चित्त को लीन करना सिखाया जाता है। चित्त के लय होने के साथ मूलाधार की गतिविधियाँ स्वंय प्रारंभ होती हैं जिनके प्रवाह में अपने को छोड़ देने को कहा जाता है। इड़ा और पिंगला शान्त हो जाती हैं, सुषुम्ना सक्रिय।
विविध जटिल पद्धतियों के विकास के बाद पुनः सरलीकरण का कार्य प्रारंभ हुआ जो सहजयोग के नाम से जाना गया। इसमें लय की प्रधानता रहती है। गुरुकृपा से चित्त की किसी अंतर्मुखी अवस्था का स्मरण करके या श्वास आदि किसी आंलबन में मन को एकाग्र कर प्राकृतिक, सहज प्रवाह/संस्कारों के प्रवाह में अपने को छोड़ दिया जाता है। क्रियाएँ ध्यानयोग की भाँति ही होती हैं। केवल एकाग्रता का महत्त्व कम रहता है।
महायान के बाद में सहजयान, वज्रयान, कालचक्रयान सभी आपस में इतने अधिक घुलमिल गए कि उपर्युक्त अर्थ किसी को विवादास्पद भी लग सकता है। इसीलिए यहाँ सहजयोग शब्द का मैंने सुविधा के लिए प्रयोग किया है।
भक्तियोग
भक्तियोग की पद्धति अन्य से भिन्न है। भक्तियोग एक प्रकार से लयात्मक पद्धतियों का समन्वय है किंतु इस मार्ग में शारीरिक व्यक्तिगत प्रक्रियाओं को कम, आराध्य या इष्ट पर ध्यान अधिक दिया जाता है।
भक्तियोग मेें चित्त के विकारों के रेचन की जगह रूपांतरण को अधिक महत्त्व दिया जाता है। कुछ लोग भक्ति के साथ अन्य यौगिक या तांत्रिक पद्धतियों का समावेष करते हैं। उनके अनुभव उनकी परंपराआंे के अनुरूप होते हैं। जो लोग भक्ति को एकमात्र साधन के रूप में लेते हैं वे मूलाधार के जागरण आदि को महत्त्व ही नहीं देते। आराध्य के प्रति समर्पण ही इनका परम लक्ष्य होता है।
उपर्युक्त प्रक्रियाओं को वसंततिलक योग, डाकिनीजाल सिद्धि आदि नामों से भी जाना जाता है।
काम के प्रति विविध दृष्टियाँ
काम, जिसे रति भी कहा जा सकता है, के प्रति समाज में विविध दृष्टियाँ हैं। ये दृष्टियाँ विविध लोगों के अनुभवों की विविधता पर आधारित हैं। जैसे -
- यह अति आनंददायी है। यह आनंद सदैव प्राप्त होता रहे।
- रतिक्रिया का कोई खंडवि शेष ही अधिक आनंददायी है। उसी का विकास एवं स्थिरता हो।
- यह अनुभूति स्खलन के समय जब अत्यंत प्रगाढ़ होती है किंतु अपनी क्षणिकता के कारण सुख की झलक मात्र देती है जिससे बाद में बेचैनी होती है। ऐसी प्रक्रिया से मुक्ति ही भली।
- कामेच्छा मन की गर्हित, पापमय इच्छा है। यह आध्यात्मिक एवं सांसारिक उत्थान में बाधक है। इसका पूर्ण दमन करना अनिवार्य है।
- कामेच्छा का उपयोग संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया तक सीमित रहना चाहिए।
- समाज द्वारा स्वीकृत मानदंडों को छोड़कर अन्यत्र कामेच्छा की पूर्ति करना अनुचित है। उसका दमन होना चाहिए।
- काम भावना ही जीवन एवं प्रेम का आधार है। यह प्रकृति की मानव पर कृपा है। इसका पूरा सत्कार होना चाहिए।
जैसे अनेक स्थानों पर सामाजिक संस्थाओं का भेद अलग-अलग देखा जाता है वैसे ही विभिन्न कालखंडों में केवल काम संबंधी ही नहीं, सभी प्रकार की नैतिकताओं का स्वरूप भी भिन्न -भिन्न रहा है। भारत में भी विवाह एवं परिवार के अनेक स्वरूप पाए जाते हैं। जैसे पितृसत्तात्मक, मातृसत्तात्मक, बहुपत्नी प्रथा, बहुपति प्रथा, समूह विवाह आदि।
संतानोत्पत्ति की प्रबल इच्छा मनुष्य की प्राकृतिक एवं सामाजिक आवष्यकता है। इस सीमा तक मनुष्य अन्य प्राणियों की कोटि में है। कामवासना का उदात्तीकरण, दीर्घीकरण, निरोध, रूपांतरण आदि की दृष्टि से मनुष्य अन्य प्रणियों से अधिक समर्थ नजर आता है। परंपरागत एवं आधुनिक चिकित्सा शास्त्र ने संतति-प्रजनन पर रोक के उपायों को ढूँढकर प्रकृति की व्यवस्था में उसने प्रबल हस्तक्षेप किया है।
पूर्वोक्त रूप में किसी व्यक्ति या समूह की जो भी मान्यता हो दीर्घकालीन रतिसुख का आकर्षण योगी एवं भोगी सबका अभीष्ट है।
केवल उत्तेजना के क्षणों के विस्तार तक का क्षेत्र सामान्य स्तर का क्षेत्र है। कामोत्तेजना का घनीभूतीकरण एवं उर्ध्वारोहण ही योगियों/साधकों का अभीष्ट है और उस द शा की प्राप्ति के लिए चित्त को शांत करना, थकाना या निष्क्रिय करना अनिवार्य है, चाहे उसके लिए मार्ग जो भी अपनाया जाय। अतः मेरी दृष्टि में मार्गो की विविधता है विरोध नहीं।
इस विद्या का विस्तृत विवेचन मैंने 'रतिसुरति’ नामक अपनी पुस्तक में किया है। विशेष जिज्ञासा का समाधान शायद वहाँ संभव हो सकेगा।


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शनिवार, 7 मई 2011

तंत्र समझ में कैसे आए?

यह प्रश्न लोगों के मन में कई बार उठता है क्योंकि तंत्र शास्त्र को गोपनीय माना गया है और लिखा कहा गया है - गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरित पार्वती। हे पार्वती अपनी योनि की तरह इसे प्रयत्नपूर्वक गोपनीय रखना चाहिए। ऐसी गोपनीयता के बावजूद आज हजारों पुस्तकें/निबंध प्रकाशित हो रहे हैं जो न तो गोपनीयता की नीति अपनाते हैं न स्पष्टता की, उल्टे अलूलजलूल बातों को विस्मयकारी ढंग से प्रस्तुत करते हैं।
मैं ने जब तंत्र के रहस्यों पर लिखने का सोचा तो मेरे मन में भी आया कि क्या करूँ? गोपनीयता एवं स्पष्टता की सीमा क्या हो? फिर मैं ने स्वयं सीमा निर्धारित की क्योंकि पाखंड के विरुद्ध तो लिखना-बोलना तय था और आज भी है।

आप भी अगर मेरी स्वनिर्धारित सीमा को समझ कर मेरे आलेखों को पढ़ेंगे तो आपको समझने में सुविधा होगी। रही बात प्रायोगिक अभ्यास की तो इस मामले में मेरा स्पष्ट निश्चय है कि अनुष्ठान आदि पूर्ण प्रायोगिक विषय किसी की निगरानी में ही सीखना चाहिए क्योंकि आप अपने दिल-दिमाग की सेटिंग को उस अभ्यास में या तो तटस्थ भाव से देख रहे होते हैं या पूर्ण तल्लीनता से बदल रहे होते हैं। इस अभ्यास में एक अवस्था ऐसी आती है जब लगता है कि आप जिसके प्रति एकाग्र और तल्लीन हो रहे हैं वह आपके बिलकुल करीब है और फिर आपका और उस आलंबंन या लक्ष्य का अंतर मिटने ही वाला है। इस समय अनेक भ्रम होते हैं, बहुत भय होता है, मनुष्य विक्षिप्त भी हो जा सकता है। किसी को देवता दिखाई देते हैं, किसी को पिशाच, यक्ष, यक्षिणी आदि। इसी में गुमराह करने वाली सूचनाएँ पागल बना देती हैं।

तंत्र का दूसरा व्यापक रूप है, जो सुनिश्चित है, जैसे- भिषक् तंत्र अर्थात् आयुर्वेद। रोग, रोगी, की पहचान, औषध निर्माण और उपयोग सीधा-सीधा मामला है परंतु इसे भी समग्रता में सीखना चाहिए अन्यथा संस्कृत कहावत है- वैद्यराज नमःस्तुभ्यं यमराज सहोदरः , यमस्तु हरते प्रणान् वैद्यो प्रणान् धनं तथा। हे वैद्यराज, तुम्हें प्रणाम है, तुम यमराज के सहोदर हो, यम तो केवल प्राण ही लेते हैं तुम प्राण एवं धन दोनों का हरण करने वाले हो।
तंत्र का पूरा व्यापक अर्थ या स्वरूप होता है जो सबको ज्ञात है -पूरी प्रणाली या व्यवस्था जैसे - लोकतंत्र, तंत्रिका तंत्र, राजतंत्र, शासनतंत्र। जीवन को समग्रता में ले तो तंत्र के अंतर्गत सारे विषय आते ही हैं।
इसीलिए रहस्यमय आवरणों वाले जिस तंत्र को गोपनीय, धार्मिक विपादास्पद, भूत-प्रेत, देवी-देवताओं की उपासना एवं चमत्कारों से भरा माना जाता है उस तंत्र में भी दुनिया की सारी उपयोगी बातें सम्मिलित होती रहती हैं।
त्रिविमीय इस दुनिया के भीतर अन्य अनेक आयाम भी हैं - ध्वनि, प्रकाश जीवन आदि। तंत्र इन सभी संदर्भांे का उपयोग करता है, जैसे- रेखाकृति, मूर्ति, मंडल (मंडप), चित्र, ध्वनि (गीत-संगीत) भोजन, बलिदान, उपदान, पारस्परिक अर्थ सहयोग, सामूहिकता, सेवा, स्वार्थ, संगठन की कठोरता, विरोधियों से संघर्ष, सफलता, विफलता, मार्गभ्रष्टता, भ्रष्ट लोगों पर दंड, संरक्षण, परोपकार, निष्काशन की कारवाई, प्रचार-प्रसार, नए संगठन बनाना, राज्य (पहले राजा, मंत्री एवं पुरोहित) को प्रभावित करना, संपन्न व्यवसायी वर्ग को सम्मिलित करना आदि।

इसलिए तंत्र साधना के तीनों रूप मिलते हैं -
क. व्यक्तिगत साधनाप्रधान।
ख. सामूहिक/जातीय/गुरुकुल आधारित साधनाप्रधान।
ग. समाज व्यवस्था परक।

क. व्यक्तिगत साधना प्रधान:-
व्यक्तिगत स्तर पर तांत्रिक साधना या सिद्धि का दावा करने वाले लोग भी अपवाद छोड़कर किसी न किसी गुरु या अपनी कुल परंपरा से विधा सीखते हैं। बिना गुरु, या बिना किसी की सहायता तंत्र की साधना असंभव के समान दुर्लभ है। सामान्यतः ऐसा दावा करने वाले झूठ बोलते हैं।
ख. किसी गुरू या परिवार आधारित समूह प्रधान
ऐसे साधक-साधिकाएँ अनेक हैं। ये प्रगट एवं गुप्त दोनों रूप से साधना करते हैं। भारतीय संप्रदाय इसी शैली में साधना परंपरा को आगे बढ़ाते हैं।

ख. समाज व्यवस्था परक:-
तंत्र की सामूहिक साधना के लाभ से प्रेरित होकर कई सिद्धों, राजाओं एवं आचार्यों ने इसे समाज व्यवस्था में लागू कर दिया। लोगों ने इसे स्वीकार कर लिया। इस विषय की आजकल चर्चा नहीं होती। सच में कहें तो विवाह, श्राद्ध, जनेऊ, व्रत, उपवास आदि के अनेक अनुष्ठान इसके उदाहरण हैं। तांत्रिक विद्या की उपलब्धि एवं स्तर के लिए अनिवार्य सामाजिक नियम बने। काशी के पूरब तय किया गया कि विवाह के पूर्व कम से कम प्रायोगिक रूप से इतनी शिक्षा तो समाज के हर युवा-युवती को किसी न किसी प्रकार दे दी जाय चाहे वह किसी भी जाति का हो। ऐसे प्रायोगिक केन्द्रों को नए शिरे से बसाया गया, राजाओं ने मदद की। यह सबकुछ व्यवस्थित रूप से पाँच सौ वर्षो में किया गया। समानांतर ढंग से इसका तीव्र विरोध भी हुआ। सामंजस्य एवं समन्वय भी हुआ। जजमानी प्रथा इसका एक उदाहरण है। मजेदार किंतु सच बात यह है कि आज भी अनेक तांत्रिक अनुष्ठान सामाजिक स्तर पर दुहराए भी जाते हैं परंतु कुछेक समझदार लोगों को छोड़कर अनुष्ठान में सम्मिलित अन्य लोग यह समझ नहीं पाते कि दरअसल इसका मतलब क्या हुआ और इसका वास्तविक लाभ क्या है?
इस नासमझी के कारण लोग जहाँ मन में आता है संशोधन करते हैं और कुछ बेवजह लकीर पीटते हैं। संस्कृत के प्रकांड पंडितों, पी॰एच॰डी॰ डिग्री वालों से लेकर निरक्षर सबका हाल इस मामले में एक है।
मैं इस सामाजिक अभ्यासवाले तंत्र पर मुख्य रूप में लिख रहा हूँ क्योंकि इसके अनुष्ठान बहुत कम गोपनीय स्तर पर होते हैं। इसे सुविधापूर्वक जाना-समझा जा सकता है। इसके बाद बाकी जानना या न जानना आपकी इच्छा। इसलिये इस ब्लाग में अनेक प्रकार के परंपरागत अनुष्ठानों पर सामग्री आएगी। आप यदि अपनी जिज्ञासा/प्रश्न सामने लाएँगे तो मुझे भी लिखने में सुविधा होगी।

संध्या भाषा/दुहरे अर्थोवाली अभिव्यक्ति:-

तंत्र के अनेक विषय दुहरे अर्थों वाली भाषा में लिखे गए हैं। अतः पहले उन्हें डिकोड करना पड़ता है। इसे पारिभाषिक रूप से यंत्रोद्धार, शापोद्धार एवं मंत्रोंद्धार (वैदिक परंपरा में) कहते हैं। इसके अपने तरीके हैं। बौद्ध तंत्र में बाकायदा एक डिकोडिंग अध्याय (पटल) बनाया जाता था और उसे किसी दूसरी किताब के बंडल के साथ बाँध कर हस्तलिखित ग्रंथों के ग्रंथागार में बाँध दिया जाता था। केवल अपनी परंपरा या संप्रदाय के लोगों को असली बात बताई जाती थी।
इस विषय पर आगे अगले किश्त में पढे़ं -

तंत्र समझ में कैसे आए ? किश्त-दो।

(वैदिक एवं तांत्रिक वर्णनों को समझने का सही तरीका)

आप इस नैसर्गिक तंत्र के एक भाग हैं

तंत्र परिचय

आप इस नैसर्गिक तंत्र के एक भाग हैं। तंत्र प्रकृति के साथ जीने की कला एवं शास्त्र दोनो ही है। शास्त्र से तो हम जरूर परिचत करायेंगे कला आपको स्वयं सीखनी पड़ेगी। प्रतीक्षा एवं धैर्य सबसे जरूरी है क्योंकि प्रकृति सब कुछ अपने समय पर करती है। जो समय के रहस्य को जितना करीब से जानते और मानते हैं यह प्रकृति उनके समक्ष उतने ही सहज रूप से अपने को अपावृत करती है। अर्थात अपने रूप को खोल कर दिखाती है।

तंत्र प्रकृति एवं उसके रहस्यों का विस्तार है। इस प्रकार तंत्र से अधिक व्यापक कोई भी कला या विद्या नहीं है। घबराइये नहीं परंतु इस उदारता के बगैर तंत्र समझियेगा कैसे? वास्तविक तंत्र तो तंत्र है, तकनीक का विस्तृत रूप है केवल सूत्र नहीं।

तंत्र खतरनाक है अगर आप अपने को प्रकृति से श्रेष्ठ मानते हैं। अपनी श्रेष्ठता छोड़िये और प्रकृति की गोद में खेलने के लिये तैयार हो जाइये। प्रकृति आपको किसी न किसी रूप में सदैव अपने पास मिलेगी ही, आप जब तक उसे नहीं जानते तब तक माया और जब जान जाते हैं तो कोई न कोई रूप अवश्य लिये हुए मिलेगी और अगर पूरी तरह जान जाएं तो पता नहीं .......क्योंकि मैं ने कब उसे पूरी तरह जान लिया है कि आपको बता दूं।
आपका स्वागत है।

आप जब तक तंत्र से डरेंगे, उसे समझने में संकोच करेंगे, बस केवल पक्ष या विपक्ष में धारणा बनाते रहेंगे तब तक न तो अपना देश समझ में आयेगाए न धर्म, न लोगों का मन, न राजनीति, न इतिहास। अब समय आ गया है कि तंत्र शास्त्र की सच्ची बातों को लोगों को खोल कर बताया जाय।

अगर परमादरणीय स्वामी शिवानंद, स्वामी कैवल्यानंद आदि लोगों ने योग को खोला नहीं होता तो योग भी ‘‘जोग’’ अर्थात जादू-टोना ही रहता। इसलिये जो तंत्र विद्या के रहस्यों को जानते हों, लोक कल्याण के लिये खुल कर बताने की हिम्मत रखते हैं, उनका स्वागत है।