मंगलवार, 30 सितंबर 2014

नवरात्रि उपहार -5 : शारदीय नवरात्रि में सौंदर्य बोध

नवरात्रि उपहार -5 : शारदीय नवरात्रि में सौंदर्य बोध को पारिवारिक बनाने की साधना
सुंदरता किसे नहीं पसंद आती? अपनी खूबसूरती और दूसरों की भी, बशर्ते वह व्यक्ति बहुत अधिक ईर्ष्यालू न हो। शाक्त साधना और शारदीय नवरात्रि में बरसात के बाद आई प्राकृतिक सुंदरता का रस तो है ही साथ ही स्वयं, सजने धजने एवं परिवेश को भी सजा-धजा कर मस्ती मनाने की दृष्टि है। यह अवसर रचना हेतु तप का कम प्रकुति की खूबसूरती में सक््िरय रूप से लीन होने का है क्योंकि इस ऋतु परिवर्तन में प्रकृति में तमोगुण बढ़ने वाला है, गर्मी या रजोगुण नहीं। इसलिये अभ्यास भी सक्रियता बढ़ाने वालो किये जाते हैं। बंगाल से गुजरात तक और कन्या कुमारी से वैष्णो देवी तक शक्ति आराधना चल रही है। 
इस आराधना से तब तक आपको लाभ नहीं मिलने वाला बल्कि हानि भी हो सकती है, जब जक आप अपने सौंदर्य बोध को उदार और पारिवारिक नहीं बनाते। हम साधना की यांत्रिकता को इतना महत्त्व दे देते हैं कि कई बार उसकी मूल व्यवस्था से ही ध्यान हट जाता है। इसलिये सुंदरता और विपरीत लगने वाली स्थिति तथा व्यक्ति में भी सुंदरता ढूढने एवं उसका लाभ उठाने की साधना एक बार आजमा कर देखिये।
इसके लिये केवल युवा या बच्चों में ही नहीं उम्रदराज लोगों में भी खूबसूरती ढूंढ़ने का प्रशिक्षण स्वयं अपने को दें। यह क्या कि केवल जवान ही सुंदर रहेंगे? बूढ़े क्यों नहीं? मैं ने कुछ उम्रदराज लोगों को भी बहुत खूबसूरती के साथ चिता में जलते देखा है। दूसरे के मरने पर मिठाई खाने के हम अभ्यस्त हैं ही तो उनकी खूबसूरती को मानने में क्या हिचक? इसके लिये टीवी स्क्रीन और पास पड़ोस के उम्रदराज लोगों की खूबसूरती को न केवल स्वीकार करें बल्कि खुल कर प्रशंसा करें। इनकी प्रशंसा में खतरा भी बहुत कम रहता है। फिर धीरे-धीरे आपका सौंदर्यबोध विराट होता जायेगा। रंगभेद को खूबसूरती में बाधक न बनने दें अन्यथा पूरे विश्व में व्याप्त खूबसूरती के बहुत बड़े हिस्से के रस का सुख स्वतः छूट जायेगा। काली, नीलतारा की उपासना आपका क्या खाक करेंगे? जब समाज अपने सौंदर्यबोध को सीमित करता है तो ईर्ष्या को बढ़ावा देता है। इसके परिणाम स्वरूप घर में प्रौढ़ लोग अपनी ही अगली पीढ़ी से जलने लगते हैं खाश कर उन घरों में जहां प्रौढ़ और बुजुर्गों की संुदरता की कद्र नहीं। तब सास श्रेणीवाली औरतें जेवरों और पुरानी दुल्हन वाली बनारसी साडि़यों से लदने लगती हैं और सुसर श्रेणीवाले बालों में खिजाब लगा कर चडढी-बनियान पहनने के कंपीटीसन में आने लगते हैं और कपडों संभलते नहीं, बरबस सरक जाते हैं। इस बेवसी से जो झलकता है, वह उसमें शायद ही खूबसूरती रहती है। अतः नैसर्गिक स्थिति में ही सुंदरता खोजी जाय। चेहरे पर पड़ी झुर्रियों की अपनी सुंदरता है, उसे मेकअप से क्यों ढका जाय?
थोड़ी देर के लिये अति नैतिकवादी दृष्टि से गंदा लगने वाले एक काम का उदाहरण लें कि अनेक बूढ़े-बूढि़यां किसी एकांत में अपने बीच बहुत सारे गड़बड़ झाले कर रहे हों, चाहे वह गाली-गलौज, डांस-रोमांस हो या, जाम लड़ाने वगैरह का। अगर रोज ऐसे भौतिकतावादी नास्तिक अपने आप में ही लगे रहें, तो सोचिये कि कम उम्रवालों लोगों की सुरक्षा का संकट इससे बढ़ेगा कि घटेगा? कम उम्रवालों को ही केवल खूबसूरत मानियेगा तो आक्रमण किस पर होगा?
अपनी सुंदरता के साथ अपने सौंदर्य बोध को बढ़ाने के अभ्यास से आप उम्र बढ़ने के साथ अपने में परिवर्तन करते हुए ताउम्र मस्त रह सकते हैं। केवल बालों में खिजाब लगा कर या यौनवर्धक दवाइयां खाकर बेकार दुविधा और तनाव में रहने से क्या फायदा? जी हां, कुछ साल पहले मैं भी 50 पार कर गया। मेरी पत्नी का भी वही हाल है। अब अगर फिर से हम अपने लिये पति-पत्नी ढूंढने का काम शुरू करें तो आप समझ लीजिये कि क्या संकट होगा? इसलिये हम आजकल खूबसूरत समधी-समधन के जुगाड़ में हैं। मेरे यहां सीघे तौर पर एक की वैकेंन्सी है। कोई न कोई प्रत्यक्ष-परोक्ष रिश्ता जोड़ कर अनंत खूबसूरत लोगों का आमंत्रण है। गोरा-काला, गेहुंआ मिल्की विल्की सब चलेगा। दांत टूटा हो सकता है लेकिन मरम्मत किया होना जरूरी है। मिठाई खाने में बेपरहेज को ऊच्च प्राथमिकता। मैं तो मिठाई खाते हुए और संगीत सुनते हुए खूबसूरती के साथ मरने के जुगाड़ में हूं। इसकी तैयारी करनी पड़ेगी। विफलता या विघ्न के डर से भागने से काम नहीं चलेगा।

रविवार, 28 सितंबर 2014

नवरात्रि उपहार 4 : वेद में अर्थवाद और तंत्र में फलस्रुति


साधना और पारिवार में रह कर साधना में भी कुछ सावधानी आपको निराशा एवं भ्रम से बचायेगी-
1 साधना परक शब्दों, वाक्यों एवं पद्यों के अर्थ तय करने के लिये उस परंपरा में मान्य प्रक्रिया को ही अपनायें क्योंकि अनेक शब्द पारिभाषिक, कूटार्थ वाले एवं लाक्षणिक हैं। लाक्षणिक मतलब उनका सीधा अर्थ ग्राह्य नहीं है। वेद में अर्थवाद और तंत्र में फलस्रुति ऐसे ही हैं। ये दोनों आपके मन को आकर्षित करने के लिये हैं न कि वैसा करने से वैसा फल मिलता है। बस एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति भर है।
2 इसी प्रकार यदि आप दुर्गाशप्तशती का अनुष्ठान कर रहे हैं तो पाठ के पहले विनियोग को समझने का प्रयास करें। वह आंरंभिक है। उसे समझना उसी तरह जरूरी है, जैसे किसी लेखक के प्राक्कथन को। उसीसे तो लेखक एवं रचना का संदर्भ समझ में आता है। इसी प्रकार पाठ के पहले लिखा हुआ विनियोग उसके संदर्भ को बताता है। कवच के पहले लिखा है-‘‘.......दिग्बंधदेवतास्तत्त्वम्......’’ इसकी उपेक्षा कर ठीक से कवच न पढ़ा जा सकता है न उसे धारण किया जा सकता है।

शनिवार, 27 सितंबर 2014

नवरात्रि उपहार 3 :: त्योहार, पारिवारिकता और साधना

त्योहार, पारिवारिकता और साधना
भारत में उत्सव और नियमित उत्सवों वाला त्योहार संस्कृति के अनिवार्य घटक हैं। उसमें भी एक तो ये परिवार के साथ मनाये जाते हैं और इन अवसरों से कोई न कोई साधना, पूजा-पाठ जरूर जुड़ा रहता है। किसी के लिये अनुष्ठान भी भले ही महत्त्वपूर्ण हो, उत्सव में तो सबकी रुचि रहती है।
लोग इसे समझने की कोशिश भी करते हैं और उत्सव त्योहार के विभिन्न घटकों में आपसी संबंध और संगति बिठाने की कोशिश भी लेकिन बहुत सारे लोग बिठा नहीं पाते। मैं लोगों की सुविधा हेतु कुछ मूलभूत सिद्धांत दे रहा हूं। इससे आप संस्कृति के अनेक विषयों में संगति ढूंढ सकेंगे।
भारत में देश और काल की दृष्टि से साधना, उत्सव और त्यौहार के लिये अवधि और स्थान तय किये गये हैं। कोई भी उदाहरण लें तो आप पायेंगे कि एक ही क्षेत्र या अवधि में अनेक प्रकार की साधना एवं उत्सव का सुख समाज ले रहा है। उदाहरण हेतु- इस समय ऋतु संक्रमण काल है। इस समय तन एवं मन की संवेदनशीलता बढ़ी रहती है। यह प्राकृतिक सुविधा है। इस अवधि के महत्त्व को स्वीकार कर शाक्त एवं वैष्णव दोनों धाराओं ने साधना विधियों को प्रचारित किया। इसके अनुवर्ती या साथ साथ मानसिक अनुकूलता के लिये गरबा, जागरण, पंडाल सजावट आदि भी जोड़ दिये गये ताकि बच्चों एवं अनाडि़यों को भी लाभ मिले।
यदि इन्हें कोई भीतरी तौर पर समझना चाहे तो उसे इनके विभिन्न घटकों को अलग-अलग भी समझना पड़ेगा, तभी पूरी बात खुल सकेगी। जब तक समझते नहीं तब तक आप आनंद उठाइये, आपकी जैसी भावना और श्रद्धा हो। उत्सव में रोक नहीं है और समझ बिना थोड़े प्रयास के होती नहीं। ध्यान देना तो कम से कम जरूरी होता ही है। इस शारदीय उत्सव की आपको बधाई।

शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

नवरात्रि उपहार 2 : जीवन में योग-तंत्र साधना का उपयोग

नवरात्रि उपहार 2     : जीवन में योग-तंत्र साधना का उपयोग
इस विषय पर एकमति नहीं है। ऐसा क्यों? इसे कुछ इस तरह समझा जा सकता है- सायंस पढ़ने का सीधा लाभ अपने जीवन में उस ज्ञान का उपयोग है। इसके अतिरिक्त नौकरी, पद प्रतिष्ठा, कमाई आदि में सायंस की पढ़ाई लाभकारी है, निर्णायक नहीं। बाजार, रिक्ति, प्रतियोगिता, पैरवी, आरक्षण, पक्षपात आदि अनेक कारक इसमें शामिल हो जाते हैं। तब समाज सायंस के अच्छे जानकार शिक्षक और व्यवस्थित शिक्षा की जगह कंपिटीशन पार कराने वाले शिक्षक एवं संस्थाओं की ओर दौड़ता है। सायंस की अच्छी और उच्च शिक्षा में कुछ ही लोगों की रुचि बच पाती है।
योग-तंत्र साधना में भी आत्मज्ञान, प्रकृति ज्ञान, जड़-चेतन संबंध, व्यष्टि-सृष्टि संबंध जैसे मूल विषयों में कम ही लोगें की रुचि होती है। अधिकांश लोग यहां भी अन्य उद्देश्य से आते हैं। नवरात्रि में स्वयं साधना से सीधा तन-मन पर पड़ने वाले अच्छे प्रभाव का लाभ उठाने की इच्छा कम लोगों को होती है। पेशेवर ब्राह्मण पूजापाठ से दान-दक्षिणा की कमाई रूपी लाभ तक अपनी सोच-समझ सीमित रखते हैं और इन्हें दान-दक्षिणा देनेवाले विभिन्न कामों में भगवती की कृपा प्राप्त करने का लाभ तक।
इन दोनों ही सीमित दृष्टियों से किये जानेवाले कामों में मूल शास्त्र का सीधा संबंध वैसे ही नहीं बैठता जैसे- विभिन्न पब्लिक स्कूलों के स्कूल ड्रेस से फिजिक्स-केमेस्ट्री का सीधा संबंध नहीं बैठता। अतः योग और तंत्र शास्त्र, पूजापाठ के अनुष्ठान, कर्मकांड वगैरह को उनके अपने परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिये, केवल लाभ हानि की दृष्टि से नहीं। भक्तिमार्गी भी जब तक भाव के विकास का अभ्यास किसी न किसी परंपरा से नहीं करते और उसके प्रति सावधान नहीं रहते तब तक वह भक्ति की साधना नहीं केवल अपनी सुविधा के कल्पना लोक में आत्मवंचना का प्रयास मात्र है। ऐसी भक्ति और नशाखोरी में कोई अंतर नहीं है या फिर यह केवल दूसरों को ठगने के लिये किया जाने वाला प्रयास हो जाता है।

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

नवरात्रि उपहार


शारदीय नवरात्रि का आरंभ हो गया। प्रायः सभी घरों में इस अवसर पर कुछ न कुछ पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, साधना वगैरह होती है। केवल अनुकरण या श्रद्धा के रूप में किये जाने वाले कार्यों के प्रति अगली पीढ़ी या स्वयं की जिज्ञासा भी रहती है कि आखिर यह सब हम करते क्यों है? आधुनिक पढ़ी इसे तर्क एवं युक्ति की सीमा में समझना चाहती है। पूरा न सही कुछ तो आधार उन्हें भी मिलना चाहिये। अतः इस अवसर पर योग, तंत्र, भारतीय अध्यात्म विद्या के जिज्ञासुओं तथा साधकों के लिये मेरी ओर से भी उपहारस्वरूप 9 पोस्ट प्रस्तुत होंगे। जैसा कि आप में से कुछ लोग जानते हैं मैं विषय के सरलीकरण का पक्षधर हूं, जटिलीकरण का नहीं। अतः इन पोस्ट में किसी देवी-देवता विशेष की स्तुति की जगह विधियों, उनके संदर्भ तथा योग-तंत्र साधना संबंधी समझ एवं सावधानी पर मेरी बातें केन्द्रित रहेंगीं।
नवरात्रि उपहार 1
तंत्र साधना का प्रथम चरण है- देश-काल बोध। इसके पहले साधना की तैयारी के अंतर्गत आसन, प्राणायाम, मुद्रा, आसन, माला, तिलक, सामान्य बाह्य पूजा, स्तुति, मंत्र को कंठस्थ करने, बैखरी जप आदि की बातें सिखाई जाती हैं।
मैं यहां जो चरणभेद रख रहा हूं, वह किसी महाविद्या साधना या अन्य संप्रदाय के आधार पर नहीं है। यहां चरण भेद का आधार है- स्थूल से सूक्ष्मतर अनुभवों को प्राप्त करने की प्रक्रिया तथा अनुभवों की सूक्ष्मता की दृष्टि से उनके स्तर। अतः ये पोस्ट केवल उनके लिये उपयोगी हैं, जो विषय को स्पष्ट रूप से समझना चाहते हैं, न कि केवल श्रद्धा भावना से मानना चाहते हैं। इसे अर्थात स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाने की प्रक्रिया को संहार क्रम कहा जाता है। संहार मतलब समेटना, हत्या नहीं।
परंपरागत रूप से संस्कृत पढ़ने के लिये पहले शब्द कोश रटाया जाता था- अमरकोश। उसका पहला मंगलाचरण वाला श्लोक है-
दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानंतचिन्मात्रमूर्तये, स्वानुभूत्येकमानाय नमः शांताय तेजसे। अर्थ- जो देश और काल की सीमा से ढंका नहीं है और जो चेतना मात्र स्वरूप वाला है, जो केवल अपनी अनुभूति से जाना जा सकता है, उस शांत और तेजस्वी को नमस्कार है।
इस प्रकार तंत्र एवं योग की मूल विधि हुई देशकाल की सीमा में बंधी हुई और उससे मुक्त दोनों पेकार की अवस्थाओं का बोध कराना। इसके लिये जरूरी है कि उस प्रक्रिया का अनुभव कराया जाय और जो अनुभव हमें है, उसमें इस सिद्धांत को समझा दिया जाय। 
मैं ने इसे प्रथम चरण इसलिये कहा कि इसे समझे, जाने, सावधान रहे बिना अनुष्ठान का सर्वप्रथम कार्य संकल्प ही नहीं हो सकता है, न्यास, कवच आदि भला कैसे होंगे? संकल्प, न्यास, कवच आदि अनुभवात्मक हैं, न कि केवल पाठ मात्र। पाठ और याद रखना तो अनुष्ठान की तैयारी है।

रविवार, 14 सितंबर 2014

किस भाषा तथा उदाहरणों में कहूं

साधना पर स्पष्टीकरण 3
मेरे सामने चुनौती थी कि जो अनुभव अतीन्द्रिय, अलौकिक, अनिर्वचनीय या वैसे कहे जाते हैं, उन्हें किस भाषा तथा उदाहरणों में कहूं कि एक सीमित ही सही लोगों तक वास्तविक समझ पहुंच सके, जितना मैं जानता हूं और अनुभव किया है। जो अन्य साधक-साधिकाओं के अनुभव से भी मिलता है। शास्त्र का समर्थन तो है ही, कोई नई बात भी नहीं है। बस सरलीकरण है। मैं एक प्रयास कर रहा हूं, आप बतायें कि क्या इससे विषय कुछ स्पष्ट हुआ?
योग एवं तंत्र की अनेक धाराओं में स्वीकृत अभ्यास (फंतासी, लीला एवं फलश्रुति को छोड़ कर) अपने तन, मन, समाज और प्रकृति के बीच के संबधों तथा उनकी कार्यप्रणाली का अनुभवात्मक ज्ञान कराते हैं। ये अनुभव तीन प्रकार के होते हैं-
1 प्रयास से सामान्य जीवन में किसी के भी द्वारा किये जाने लायक, जैसे- आसन, प्रणायाम, मुद्रा, बंध आदि।
2 ध्यान के द्वारा मनोमय जगत की संरचना तथा भौतिक जगत से उसको संबंध।
3 अपने शरीर को सीमा एवं निरंतर मर्यादित तथा सक्रिय रखने वाले स्वतः संचालित प्राकृतिक व्यवस्थाओं का अनुभवात्मक ज्ञान तथा उसे भी एक हद तक नियंत्रित करने की क्षमता का विकास। 
यह जो तीसरा स्तर है, जैसे सहज सोना-जागना, रक्तचाप, हृदय गति, फेफड़ों की गतिविधि, सुनने, समझने की क्षमता को कमाधिक करना, डायफ्राम एवं आंत के आकुचन-प्रसारण, अतंःस्रावी ग्रथियों को कमाधिक सक्रिय करना आदि वे ही अन्य अनेक बातों को नियंत्रित करती हैं।
चूंकि इनमें थोड़ी गड़बड़ी भी अनेक संकट पैदा कर सकती है अतः जो लोग इनमें छेड़छाड़ से डरते हैं, गलत नहीं करते। लाचारी में इनकी कार्यप्रणाली को अनुभवात्मक रूप से सिखाने वाले लोगों की मजबूरी होती है कि वे इस विद्या को उन्हें ही सिखायें, जो उन पर भरोसा कर सकें या उन्हें जिनका पहले से ही बिगड़ा हुआ हो तो उनकी कार्यप्रणाली को सुधारने के क्रम में।