शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

खुल कर चर्चा करें।

तंत्र विषय पर खुली चर्चा की आवश्यकता को ध्यान में रख कर इसे पुनः व्यवस्थित किया जा रहा है। डरावनी, गंभीर, विवादास्पद एवं वयस्क सामग्री भी हो सकती है। अतः इसे विधिवत वयस्क घोषित किया गया है। अतः सदस्यता लें, पहचान प्रगट करें और खुल कर चर्चा करें। यह विरक्त या साधु के लिये नहीं है। धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष सभी स्वीकृत हैं। इनमें संतुलन एवं परस्पर पूरकता बनाना ही असली रहस्य विद्या है।

रविवार, 8 सितंबर 2013

डायन और पीपल

डायन और पीपल

साधना से अपना एवं दूसरों का भला करने की बात तो सबको स्वीकृत है लेकिन तंत्र विद्या का एक सकारात्मक पक्ष यह है कि वह शीघ्रता से सूक्ष्म स्तरों तक पहुँचने का रास्ता बताती है। साथ ही, प्राकृतिक शब्दों पर नियंत्रण करने की कला भी तंत्र शास्त्र में सिखाई जाती है। बाहर से देखने पर तंत्र के भेद-प्रभेद वैदिक, बौद्ध, शैव, शाक्त आदि जो भी हों लेकिन मूलतः इनके भीतर समानता पाई जाती है और इस अर्थ में सारा तंत्र शास्त्र एक है।
तंत्र विद्या का एक नकारात्मक पक्ष यह है कि तंत्र साधना में छः प्रकार के कर्म निषिद्ध कर्म माने गए हैं क्योंकि वे दूसरों को हानि पहुंचाते हैं। 1 मारण - मंत्र बल से किसी की हत्या करना, 2 मोहन/वशीकरण - किसी को अपने बस में कर लेना, किसी को भ्रमित करना, 3 स्तम्भन - ठिठकाना, उसी अवस्था में रोक देना 4 उच्चाटन - किसी काम से, किसी के मन को पूरी तरह हटा देना, 5 विद्वेषण - झगड़ा कराना, 6 शांति- विविध उपद्रवों की शांति।
उपर्युक्त कामों की निंदा करने के बाद भी अच्छे तांत्रिक का मतलब ही समझा जाता है कि वह व्यक्ति उपर्युक्त कामों में भी निपुण है। शांति कर्म को तो समाज में बिलकुल बुरा नहीं माना जाता। इन निषिद्ध कामों में भी मारण सबसे जघन्य आपराधिक कार्य है। औरतों में जो भी इस विद्या की जानकार हों लोग इन्हें आम तौर पर डायन कहते हैं लेकिन यह अधूरी बात है। पूरी जानकारी के अभाव में बहुत सारी उटपटांग बातें समाज में फैल गई है।
डायन के बारे में एक प्रचलित धारणा यह है कि यह पूर्णिमा एवं अमावस्या की रात को पीपल के पेड़ पर चढ़कर उसे जड़ सहित उखाड़ कर गंगा स्नान करने जाती है, और गंगा स्नान कर वापस लौटने पर इस पीपल के पेड़ को पुराने स्थान पर स्थापित कर देती है। इस धारणा से मैं सहमत तो हूँ लेकिन मैं केवल साधनापरक, रूपक की व्याख्या वाले अर्थ से ही सहमत हूं।
वस्तुतः यह तो एक रूपक है, ध्यान ही असली साधना है, जिसके बल पर कोई छोटे छोटे चमत्कार दिखा सकता है, चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक। पीपलवाली आम धारणा रूपक को यर्थाथ मानने के कारण है।

डायन सुनकर यदि आपके दिमाग में एक बुरी औरत की तस्वीर उभर आई तो उसमें आपका कोई खास दोष नहीं है। समाज में उनकी छवि ही ऐसी बना दी गई है। उनकी इस बुरी छवि का ही प्रभाव है कि औरतों को डायन करार देकर उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित किए जाने, यहाँ तक कि हत्या तक कर दिए जाने की खबरें आए दिन अखबारों में छपती ही रहती हैं।
आम लोगों में डायनों के प्रति ऐसी धारणाएँ मौजूद हैं कि डायनें अत्यंत क्रूर और स्वार्थी होती हैं। वे दूसरी औरतों को जाँँता (चक्की) चलाते समय जँतसार का गीत गाते हुए उल्टी चक्की चलाकर अपना मंत्र दे देती हैं। बदले में नई-नई डायन बनी औरतों को अपनी माँग (सुहाग, पति) या कोख (संतान/पुत्र) की बलि देनी होती है।
डायनें किसी व्यक्ति या पशु-पक्षी को नजर लगा देती हैं।
जिस पर उनकी नजर लग जाती है वह बीमार हो जाता है और धीरे-धीरे काल का ग्रास बन जाता है। वे किसी को त्तकाल भी मार सकती हैं।
डायनें किसी के घर से किसी बहाने आग माँग कर ले जाती हैं जिसके बाद उस घर की संस-बरकत (समृद्धि) खत्म हो जाती है।
डायनें जिसकी हत्या करती हैं उसकी चिताभूमि पर नग्न अथवा बढ़नी (झाड़ू) पहनकर नाचती हैं और उनकी आत्माओं को गुलाम बनाकर उनसे तरह-तरह के काम करवाती हैं।
कब्र में गड़े बच्चों को वे कब्र से निकालकर जिंदा कर लेती हैं और उन्हें सूप में लेकर नाचती हैं। ये सारे कृत्य वे आधी रात में या उसके बाद करती हैं।
नवरात्र (आश्विन व चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी) में उनकी शक्ति विशेष तौर पर बढ़ जाती है। इस समय ग्रामदेवी (सप्तदेवियों) के मंदिर में आधी रात को गाँँव की सारी डायनें इकट्ठा होती हैं और नग्न अथवा झाड़ू पहनकर नाचती हैं।
नाचती हुई डायनों को देखना काफी खरतनाक है। अगर किसी ने उनकी योनि देख ली तो उसकी मृत्यु निश्चित है। हाँ कोई साहसी व्यक्ति अगर आँखों से वार करने के पहले ही उनके बाल पकड़ ले तो उसपर उसकी विद्या काम करना बंद कर देती है। अगर उस समय वह किसी बालक को जिलाकर उसके साथ नाच रही हो तो वह बालक जिंदा ही रह जाता है।
डायनें आधी रात को पीपल के पेड़ पर चढ़ जाती हैं और उसे उड़ाकर आकाश मार्ग से गंगा स्नान के लिए चली जाती हैं। वापस आकर वे पीपल को धरती पर यथावत स्थापित कर देती हैं। कुछ डायनें अच्छी होती हैं। वे लोगों का अनिष्ट नहीं, मदद करती है। लेकिन ऐसी डायनों की संख्या बहुत कम है।
डायनों के बारे में इस तरह की अनेक धारणाएँ देश-दुनिया में व्याप्त हैं जिनके आधार पर उनकी कुख्याति दुष्ट शक्तियों के रूप में है। इस तरह की धारणाएँ भारत में ही नहीं यूरोप-अमेरिका सब जगह मौजूद हैं। इन्ही धारणाओं के चलते प्रायः सारी दुनिया में उन्हें घृणा की नजर से देखा जाता है।
डायनों के बारे में ये धारणाएँ बिल्कुल गलत या तथ्यहीन नहीं है। इनमें से अनेक धारणाएँ आंशिक रूप से सच हैं लेकिन अधिकांश या तो अतिरंजित हैं या फिर रूपकों के रूप में वर्णित जिनके विश्लेषण में अक्षम लोग उन्हें घटना के रूप में सच मान बैठते हैं। उदाहरणस्वरूप पीपल हाँकना या उड़ाना एक रूपक है जिसका उल्लेख श्रीम˜गवद्गीता में भी है।
अश्वत्थमेनं सुविरूढ़मूलम्
असंग शस्त्रेण दृढ़ेन छित्वा।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम्
यस्मिन् गता नातिवर्तन्ति भूयः।।
अर्थात्् जिसनेे अपनी जड़ों को भली भाँँँति जमा रखा है वैसे इस पीपल को बिना किसी शस्त्र के या अनासक्ति रूपी शस्त्र से काटकर उसके बाद उस पद के रास्ते में जाना चाहिए जिसपर जाने के बाद लोग पुनः वापस नहीं आते हैं।
यहाँँँ पीपल का वृक्ष मानव शरीर का पर्याय है। मानव शरीर की ज्ञानवाही नाड़ियों की तुलना पीपल की जड़ों व तनों से की गई है। इन ज्ञानवाही नाड़ियों की चेतना को समेटना ही पीपल को उखाड़ना है। योगियों-योगिनियों/भैरवियों के लिए यह अभ्यास पूर्णतः योगशास्त्र-सम्मत है। बौद्धतंत्र में डाकिनियों को धातुवाही (सात धातु, मांस, मज्जा, मेद, अस्थि, पूय, रक्त, वीर्य) नाड़ियों में स्थित एवं उनकी मालकिन बताया गया है।
डाकिनी का जाल (नाड़ियों का जाल) पूरे शरीर में फैला हुआ है। उसे जो समेटना जान जाता है वह डाकिनी जालसंवरतंत्रका अधिकारी होता है।
चक्की चलाते समय डायन का मंत्र सिखाने संबंधी अवधारणा भी इसी प्रकार की है। चक्की चलाते समय एकाग्रता का अभ्यास भी योग शास्त्र-सम्मत है। यह घूर्णन विधि आधारित धारणा का अभ्यास है जिसका वर्णन विज्ञान भैरव तंत्रमें स्पष्ट रूप से मिलता है। जँतसार के गीत कबीर के निर्गुण पदों की तरह संध्या भाषा के पद होते हैं जिनके सामान्य अर्थ भी होते हैं और साधनापरक भी। उल्टी चक्की चलाना एक रूपक है जो चेतना को स्थूल से सूक्ष्म की ओर ले जाने के क्रम में मन को पूर्व संस्कारों (अवचेतन में बैठी गंभीर घटनाओं/ग्रंथियों) की दिशा में ले जाने का प्रतीक है।
डायन का मंत्र सीखने की दक्षिणा स्वरूप माँग (पति) अथवा कोख की बलि भी रूपक ही है। साधना के बल पर अपने इष्ट लक्ष्य के साथ एकाकार होकर अपने पति पर निर्भरता से मुक्त हो जाना ही इसका अभिप्राय है। अनेक तांत्रिक रूपकों में इसी कारण तारा अथवा काली को शव रूपी शिव पर आरूढ़ दिखाया जाता है। इसी प्रकार चेतना के ऊर्ध्वारोहण को तंत्र शास्त्र में संहार कहा जाता है और इसके अभ्यास को संहार क्रम की साधना कहा जाता है। इसकी साधना में प्रवीणता प्राप्त कर लेने के बाद किसी के मन में इस संसार में अपनी आत्मीयता के विस्तार की आकांक्षा न हो यह बिल्कुल स्वाभाविक है। दुर्भाग्यवश संहार शब्द को केवल मारण अथवा हत्या से जोड़कर देखा जाता है जो उचित नहीं है। ऐसी स्त्री के मन में अगर संतानोत्पत्ति की इच्छा न हो तो इसमें आश्चर्य क्या है? संहार का अर्थ ही है समेटना।
साधकों/साधिकाओं के लिए रात्रि जागरण करना/रात्रिकाल साधना के लिए अधिक अनुकूल होता है क्योंकि इस समय अधिकांश लोग सोते हैं जिससे विघ्न की आशंका काफी कम होती है। इसी कारण प्रायः सभी साधक-साधिकाओं द्वारा रात्रिकाल का अपनी साधना के लिए उपयोग होता है लेकिन लोकमानस में डायनों की नकारात्मक छवि के कारण उनके साथ अनेक उल्टी-सीधी बातें जोड़ दी गई हैं।
इतना कुछ जानने के बाद किसी के भी दिल में यह खयाल उठना स्वाभाविक है कि ऐसी नकारात्मक छवि डायनों के बारे में ही क्यों बन गई है। अन्य साधक-साधिकाओं की क्यों नहीं? इसका कारण वस्तुतः इतिहास के लंबे कालखंड में घटित घटनाओं की अनेक श्रृखंलाओं में छुपा है।
साधना की इस धारा का संबंध बौद्ध खासकर वज्रयान बौद्ध धाराओं से है। डायन शब्द डाकिनी शब्द का त˜व रूप है और डाकिनी डाक शब्द का स्त्रीलिंग में रूप है। डाक शब्द का अर्थ होता है तेज चलने वाला। इस लिहाज से डाकिनी शब्द का अर्थ तेज चलने वाली हुआ। बौद्ध धारा मंे डाकिनी तंत्र की साधना में साधिकाओं को सिद्धि प्राप्त करने में काफी तेजी से सफलता मिलती थी, संभवतः इसीलिए उनका नाम ही कालक्रम में डाकिनी पड़ गया। बौद्ध तंत्र के ग्रंथों में डाकिनियों को नाड़ियों में स्थित बताया गया है। आज भी रिक्शा चालकों को रिक्शा कहकर लोगों को पुकारते क्या हम नहीं सुनते हैं? संभव है डाकिनी अर्थात्् तंत्रिकाओं पर तेजी से नियंत्रण कायम करने के कारण भी उन्हें यह नाम मिला हो। इसकी चर्चा आगे होगी।
अतीत के बौद्ध-वैदिक संघर्ष से भला कौन अवगत नहीं है। आध्यात्मिक वर्चस्व के इस संघर्ष में दूसरी धारा के साधकों और साधना पद्धतियों की अवमान्ना तो इसकी स्वाभाविक परिणति है। पुरुष वर्चस्व वाले समाज में महिलाओं का इसका अधिक शिकार होना भी उतना ही स्वाभाविक है। ऊपर से कोढ़ में रवाज जैसा काम तांत्रिक और अतांत्रिक साधना धाराओं के आपसी संघर्ष ने किया। बौद्ध-वैदिक संघर्ष में बौद्ध धारा जब वैदिक धारा में समाहित हो गई तो बौद्ध-तांत्रिक धारा भी शैव-शाक्त तांंित्रक धारा में समाहित हो गई। तांत्रिक-अतांत्रिक धाराओं के संघर्ष में वे भी स्वाभाविक रूप से एक पक्ष हो गए और तांत्रिक धारा के पराजय के पश्चात् वे दुहरी घृणा के शिकार हो गए। डाकिनियाँ तो स्त्री होने के नाते तिहरी घृणा की शिकार हुईं।
इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण और भी है। डाकिनी साधना वस्तुतः काम और क्रोध की ऊर्जा के रूपांतरण की साधना है। क्रोध की ऊर्जा के रूपातंरण की तो पुरूष वर्चस्व वाले समाज को कोई चिंता नहीं थी लेकिन स्त्री के सर्वस्व पर अपना नियंत्रण मानने वाले पुरुष समुदाय को स्त्रियों का अपनी काम ऊर्जा/काम भावना पर नियंत्रण प्राप्त कर लेना कैसे बर्दाश्त होता? इससे पुरुषों पर उनकी निर्भरता काफी हद तक समाप्त हो जाती थी।
फलस्वरूप डाकिनी साधिकाओं की प्रताड़ना में वृद्धि हुई। इसकी परिणति कहाँ तक हुई है इससे हम सभी वाकिफ हैं।
डाकिनी साधना अर्थात्् काम और क्रोध ऊर्जा के रूपांतरण की साधना को लेकर स्वभावतः कई सवाल खड़े होते हैं। जैसे काम और क्रोध के रूपांतरण की साधना क्या सिर्फ डाकिनी साधना में ही होती है? क्या इस साधना से किसी का अनिष्ट किया जा सकता है? क्या इस साधना का परिणाम मूलतः अनिष्टकारी है? क्या डाकिनी साधना सिर्फ स्त्रियाँ ही कर सकती हैं? इत्यादि-इत्यादि। और सबसे बड़ा सवाल यह है कि काम और क्रोध की कोई ऊर्जा अलग से होती भी है क्या और अगर होती है तो उसका रूपांतरण संभव भी है क्या?
सच तो यह है कि काम और क्रोध की अलग से कोई ऊर्जा नहीं होती है। ये भी मन की विशेष भावनाएँ हैं जिसके अनुरूप शरीर की गतिविधियाँ संचालित हो सकती हैं। यह बात भी विज्ञान द्वारा प्रमाणित है कि काम अथवा क्रोध की अवस्था में शरीर विशेष हारमोन श्रावित करते हैं जिससे शरीर में ऑक्सीजन की खपत बढ़ जाती है और शरीर अधिक शक्ति लगाने में सक्षम हो जाता है। इसके अलावा किसी खास बिंदु पर मानसिक केंद्रीकरण के चमत्कार से भी विज्ञान अपरिचित नहीं है। मनोरोगों के इलाज में हिप्नोटिज्म का प्रयोग तो दुनिया भर में मनोचिकित्सकों द्वारा किया जाता है।
रही बात रूपांतरण की तो यह भी कोई नई बात नहीं है। संवेगों के प्रभाव में असंभव जैसे लगने वाले अनेक कार्य कर गुजरना समस्त प्राणिजगत में देखा जाता है। मनुष्य में भी ऐसे प्रभाववश किसी डरपोक आदमी का निर्भीक बन जाना और हैरतअंगेज काम कर बैठना प्रायः रोज ही हम देखते-सुनते हैं।
क्रोध ऊर्जा के रूपांतरण के उदाहरण भी उतने ही सुलभ हैं। किसी माँ द्वारा अपने गलती करने वाले बेटे को निर्दयतापूर्वक पीटना और बाद में उसे छूटकर प्यार करना मगध के गाँवों में प्रायः रोज ही देखने को मिलेगा। इनके दीर्घकालिक रूपांतरण की कल्पना आप खुद कर सकते हैं।
काम और क्रोध ऊर्जा के रूपांतरण की साधना सिर्फ डाकिनी साधिकाएँ नहीं करती हैं। कौन ऐसा सिद्ध है जिसने यह साधना नहीं की हो। सिद्धों की छोड़िए, हर पहुँचा हुआ साधक इसकी साधना करके ही साधना के ऊँचे पायदानों तक पहुँचता है।
कुंडलिनी साधना तो निश्चित रूप से काम ऊर्जा/काम भावना के रूपांतरण की साधना है जिसका अभ्यास ओशो से लेकर तमाम प्राचीन-आर्वाचीन योगी-तांत्रिक गुरु करवाते हैं। निर्मला देवी (सहज योग मंदिर) तो इसका अभ्यास बिल्कुल खुले शिविरों में करवाती हैं जिनमें किसी भी पात्र का प्रवेश निषिद्ध नहीं है। मगध क्षेत्र के लोकाचार में इसका अभ्यास तमाम वर-वधुओं व दंपतियों को करवाया जाता है।
जो क्षमता इन सभी साधकों-साधिकाओं में पैदा होती है या हो सकती है वही तो डाकिनी साधिकाओं में भी संभव है। तो फिर डायन के नाम पर सिर्फ महिलाओं की प्रताड़ना क्यों? वह भी गाँव की दीन-हीन महिलाओं की। इसका कारण समाज में डायनों के बारे में संचित घृणा है, चाहे इसका आधार बिल्कुल गलत ही क्यों न हो। अंधविश्वास की ताकत से कौन अपरिचित है।
गरीब-अनपढ़ स्त्रियों का आसान लक्ष्य होना इसका दूसरा प्रमुख कारण है। क्या ऐसा कभी सुनने में आया है कि संपन्न संभ्रांत घर की किसी स्त्री को डायन के नाम पर प्रताड़ित किया गया है?
डायन के नाम पर औरतों की प्रताड़ना के सबसे बड़े कसूरवार वस्तुतः अंधविश्वास फैला कर अपनी रोटी सेंकने वाले धूर्त लोग हैं। सदियों से उनके दुष्प्रचार के शिकार बने भोले-भाले ग्रामीण भी कसूरवार हैं लेकिन उनकी तुलना में बहुत कम।
अब वक्त आ गया है कि इस अंधविश्वास और अंधविश्वास फैलाने वाले लोगों के खिलाफ एक तीखा संघर्ष शुरू किया जाए और भोले-भाले लोगों को समझाया जाय कि कोई औरत अगर डायन साधिका है तो वह भी उतनी ही आदरणीया है जैसे दूसरे साधक। काम और क्रोध पर विजय प्राप्त करने वाली किसी का अनिष्ट कैसे कर सकती है?
समाज अब पुरुष वर्चस्व की भावना से बाहर आए यह समय की माँग है। लोग अब यह सोचंे कि अगर रघुनी डाक का मंदिर (मंझवे जिला, नवादा) में बनाया जा सकता है तो डायन साधिकाओं का क्यों नहीं?
डायन के नाम पर ़िस्त्रयों की प्रताड़ना के खिलाफ संघर्ष चल भी रहा है। एक बड़ी पहल जमुई आश्रम (बिहार) ने की है और ऐसी प्रताड़िताओं को अपने आश्रम में आश्रय दिया है। आवश्यक है कि ऐसे प्रयासों को तेजी लाई जाय।
दुर्भाग्य से जमुई आश्रम ने भी इन्हें अपने मुख्य आवासीय परिसर में स्थान न देकर आश्रम से बाहर सुदूर निर्जन स्थान पर आवास दिया और इन प्रताड़िताओं को डायन ही सिद्ध कर दिया।
स्त्रियों में प्रायः विधवा औरत को डायन माना जाता है। विधवा से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने को कमजोर असहाय माने और किसी तरह दोयम दर्जे के अभिशप्त मनुष्य की तरह जीवन व्यतीत करे। अपने अधिकारों एवं संपत्ति के प्रति भी सजग एवं समर्थ न रहे। संभव हो तो उसे संपत्ति एवं सत्ता से च्युत कर दिया जाय। पूजा-पाठ या धार्मिक अनुष्ठानों में भी वह वैसे व्रत/अनुष्ठान करे जिससे उसकी वैचारिक दक्षता एवं शारीरिक स्वास्थ्य, सौष्ठव, लावण्य की निरंतर क्षति होती जाय। उदासीनता उसका स्वभाव बन जाय। इसके लिए लंबे उपवास, फलाहार, जलाहार, नैराश्यपूर्ण गीत/भजन आदि की ओर उन्हें प्रेरित किया जाता है।
इसके विपरीत जो भी साधना विधवा को बल देने वाली हो उसके लिए निषिद्ध है, क्योंकि काम या क्रोध, दोनों की ऊर्जा उसे पुनर्विवाह, यौन संबंध, स्वनिर्णय, संतानोत्पत्ति, यौन शोषण से मुक्ति, संपत्ति एवं सत्ता में दावेदारी तथा संघर्ष की ओर ले जा सकती है।


अतः वे ही अनुष्ठान और साधना विधियाँ जो पुरुषों के लिए उचित मानी गई स्त्रियों द्वारा आचरित होने पर निषद्ध मानी गईं। परिणामतः इन अभ्यासों को गुप्त या छù रूप से किया गया। कुछ संप्रदायों के पुरुष साधकों ने इस साधना-विधि को पुरुष संरक्षण या संपर्क में विहित बताया। उन संप्रदायों की स्त्रियों को साधिका, कहकर प्रतिष्ठा दी गई किंतु स्वतंत्र साधना एवं सभी विधवाओं की उग्र साधना को स्वीकृति नहीं दी गई, जैसे- वस्त्र की परवाह न करना, अग्नि-होम, कुंड साधना, पंचाग्नि साधना, श्मशान साधना, रात्रिजागरण पूर्वक नृत्य, गायन, स्त्रियों की स्वतंत्र मंडली का सदस्य बन्ना, हठयोग की क्रियाएँ या अन्य तांत्रिक अनुष्ठान, कुंडलिनी साधना आदि।
स्त्री दूसरे के लिए सजधज कर नाचे तो ठीक और अपने लिए अपने आंतरिक आनंद में विमोर होकर एकांत या रात में नाचने लगे तो वह डायन होने लगती है। एक बात और, यदि स्त्री लाल कपड़े पहन कर काली, दुर्गा, मंगला, विंध्यवासिनी की भक्तिन बनती है तो स्वीकार्य होती है किंतु जैसे ही वह योग एवं ध्यान मार्ग की वास्तविक साधना करती है, संदिग्ध हो जाती है क्योंकि ध्यान एवं योग मार्ग की वास्तविक साधना की विधियाँ लोगों की समझ में नहीं आतीं। फिर तो शून्य, निरंजन, श्मशान, अहोमाव नृत्य, एकांत में, रात में बैठना, जप करना, संस्कृत की जगह कूटभाषा वाले देशी पदों का गाना सब समझ से परे एवं खतरनाक लगने लगते हैं। दूसरी धारा के लोगों ने स्त्रियों के अहोभाव नृत्य या समूह नृत्य, जो लोकविरोध के भय से (स्त्रियों द्वारा अपने लिए किये जाने पर) गुप्त रूप से अगर संपन्न हो रहे हों तो उसमें विध्न डालना, बाल पकड़ कर मारना आदि को जरूरी बताया है।
शाक्त संप्रदाय में दस महाविद्याओं में एक महाविद्या धूमावती है। धूमावती का रूप काली जैसा विकराल नहीं है, फिर भी धूमावती की साधना करने वाली स्त्री या पुरुष बिरला ही मिलेगा। धूमावती की अवधारणा का डायन की अवधारणा में काफी धालमेल हुआ है। धूमावती का रूप विधवा, मलिन वस्त्र वाली, सूप लेकर चलने वाली है। इस रूप को आदरणीय मानने पर विधवा पूजनीय हो जाती है। अतः विधवा, मलिन वस्त्रवाली, मुरझाए उदास चेहरे वाली, ग्राह्य-अग्राह्य को एकाग्रतापूर्ण ध्यान का प्रारंभ विंदु समझ सूप से सफाई की भाँति अभ्यास करने वाली स्त्री को धूमावती की तरह डायन घोषित कर त्याज्य माना गया ।
चूँकि एक समय स्त्रीप्रधान सभी साधना-विधियों का एक प्रमुख स्थान कामरूप कामारव्या को माना गया इसलिए डायन भी कामरूप कामाख्या जाती होंगी, ऐसा समझा जाने लगा।
बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है कि बात-पीछे भारत में किसी भी संरचना को मानवीकृत करने की प्रवृत्ति है। इस तरीके के कारण संपूर्ण ब्रह्माण्ड भी मानव शरीर बन जाता है। समरूपता मान्ना तो अति सहज है। यथा पिंडे तथा ब्रह्माण्डे गंभीर किंतु स्वीकृत मौलिक सूत्र है।
मानव देह रूपी पिंड में ही अनेक तीर्थांे तथा विधियों को समाहित कर दिया गया है। उनमें कामरूप, कामाख्या भी है। कामरूप (काम का रूप) ही कामारव्यातक जाता है। काम ऊर्जा का विकसित रूप सिमटे हुए, धनीभूत काम के मूल रूप में केन्द्रित होता है।
बौद्ध एवं वैदिक दोनों ही धारा के तंत्रशास्त्रीय ग्रंथों में श्मशान, पीठ-उपपीठ आदि के शरीरस्थ रूप एवं बाह्य रूपों का प्रचुर वर्णन उपलब्ध है।
डायन के बारे में यह मान्यता स्वाभाविक लगती है कि डायनें प्रायः ऊँची जाति की होती हैं, बहुत कम पिछड़ी जातियों से होती हैं और बिरली ही दलित औरत डायन होती है। साधना-विधियों पर भी समर्थ लोगों का वर्चस्व होना सहज है। यह मान्यता क्षेत्रीय एवं दलित वर्ग की है। ऐसा मैंने पहली बार सुना है।
मंत्र तो ढाई अक्षर का ही होगा। ढाई अक्षर से सूक्ष्म एक अक्षर का एक मंत्र है जो जप का नहीं केवल अनुभूति का विषय है। अ$उ दोनों की मात्रा ।$, 2 हुई और स्वर रहित म् आधा हुआ। इस प्रकार ढाई अक्षर का मंत्र ऊँ होता है जिसकी निंदा वस्तुतः कोई हिन्दू कर ही नहीं सकता। यह मंत्र सृष्टि एवं संहारक्रम दोनों में चलता है।
बलि देना एक भावनात्मक क्रिया है। बलि देना संसार की विविध परंपराओं में विविध रूपों में स्वीकृत है। अपनी बलि, कर्तव्य के लिए आत्मोत्सर्ग ही सर्वश्रेष्ठ बलि है। किंतु अपना या अपने समान प्रिय पुत्र आदि की बलि देना वस्तुतः दुष्कर होता है। फिर भी परंपरा के अनुपालन में पाले-पोसे पशु-पक्षियों की बलि देना हिन्दू मुसलमान दोनों ही लोगों में प्रचलित है। बात इससे भी आगे बढकर स्व या शत्रु के प्रतीकस्वरूप शत्रु की पुतली/पुतला बनाकर उसे मारने तक फैली। नेताओं का पुतला दहन रोज होता है। तांत्रिक अनुष्ठानों में मारण प्रयोग वाले वस्तुतः ऐसा करते हैं। इसकी प्रतीकात्मक स्थिति नहीं है। ऐसी क्रिया डायन या कोई दूसरा भी करता रहता है। जानवरों की प्रतीकात्मक बलि चलती रहती है। जैन परंपरा में भी पुत्तलियाँ बनाकर यक्षिणी को बलि दी जाती है। जैनियों की सबसे बड़ी घृणा ब्राह्मण से है अतः यदि ये नरबलि के लिए उत्तम ब्राह्मण की पुत्तलिका की ही बलि देते हैं, तो ऐसा होना सहज है।
इन क्रियाओं का तंत्र ग्रंथों में विस्तृत वर्णन है। ऐसा केवल डायनें करती हीं होगी यह नहीं कहा जा सकता।
डायनों के सामने चुप नहीं रहना चाहिए, ऐसा प्रतिरोधात्मक उपाय लोगों ने समझ रखा है। आशय यह है कि बोलते रहने एवं उनसे नजरंे न मिलाने से डायनों के सम्मोहन का असर नहीं पड़ेगा। सम्मोहन के लिए संवाद का कोई न कोई माध्यम होना जरूरी है। संवाद के माध्यमों में देखना एवं सुन्ना सर्वाधिक संवेदनशील माध्यम हैं जो बिना छुए हुए या निकट शारीरिक संपक्र के भी हो सकता है। अतः डायनों को देखने या सुन्ने की सामान्यतः मनाही है। भयमुक्त होकर उनकी साधना के समय उन्हें देखना या सुन्ना मना नहीं है। बल्कि ऐसा करने वाला व्यक्ति डायनों को ही हरा देता है उसकी शक्ति एवं प्रयोगों को रोकने में सफल होता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि डायनों की वास्तविकता से अलग समाज उनके प्रति अत्यधिक भय एवं घृणा से ग्रस्त होकर केवल संदेह पर ही अनेक औरतों की पिटाई से हत्या तक का कुकर्म करता है। स्त्री को भी जीवन जीने एवं साधना करने का हक पुरुष की भाँति है। अगर कोई साधिका है तो उसे दंड एवं साधक है तो पुरस्कार यह सर्वथा अन्यायपूर्ण है।
सहायक ग्रंथ
डाकिनीजालसंवर तंत्र, तिब्बती संस्थान, सारनाथ वाराणसी
बौद्धतंत्र कोश, तिब्बती संस्थान, सारनाथ वाराणसी
भगवद्गीता
मूलबंध, बिहार योग विद्यालय, मुँगेर

वसंततिलक योग, तिब्बती संस्थान, सारनाथ वाराणसी