शनिवार, 23 नवंबर 2013

योग और तंत्र के संबंध


तंत्र को अनुभव और उसकी पद्धति और उदाहरण की कसौटी पर अगर कसें तो सही स्थिति का पता चलेगा।
योग ‘‘बच्चा’’, ऐसा प्रचलित वक्तव्य है मेरा नही। तंत्र सर्वांग व्यवस्था को प्रधानता देता है लेकिन भक्त जुटाने के लिए और अपनी महिमा बढ़ाने के लिए एक ही बात को योग एवं तंत्र दोनेां नाम से कहा जाता है। हठयोग में भी आसन, सामान्य प्रणायाम से उपर आकर गहन कुंभक, बज्रोली - सहजोली, उनके साथ गहन कुंभक की प्रक्रिया आयेगी तो तंत्र मंें भी शक्ति चालन, कुंडलिनी को मूलाधार में सक्रिय कर स्वाधिष्ठान की ओर भेजने के लिए उस विधिका भी सहारा लिया जाता है। गोरख वाणी में ‘अर्धे जाता अर्धे धरे, काम दग्ध जोगी जो करे’ - आदि वर्णन आते हैं। यह तो हठयोग एवं कुंडिलिनी योग ही नहीं, वाम मार्गी तंत्र की भी प्रक्रिया हो गई। 
मूलाधार से पहले कमल नाल, आजकल रबर की नली से पानी, तेल और बाद में वीर्य को ऊपर खींचने की पक्रिया हठयोग में आयेगी, स्त्री योनि एवं शरीर को पूर्ण उत्तेजित रखने एवं स्खलन से बचने की प्रक्रिया तंत्र में जाएगी।
हठयोग प्राणायाम का सहारा लेगा, बंध का अभ्यास बताएगा। तंत्र में सुविधा मिलेगी मंत्रों की आवृत्ति में मन को रोकने भटकाने की। उससे उत्कृष्ट होगा अपने ही मनेामय कोश का साक्षात्कार, अपने ही भीतर के चेतनामय शरीर में क्रमशः प्रवेश करते जाना। ध्याान योग में सुषुम्ना स्वतः चलने लगेगी। नाद बिंदु का मिलन होगा, त्रिकुटि लय होगा। स्वतः प्रत्याहार एवं धारणा सध जाएगी।
अब क्या? उसके बाद तो प्रकृति सारा रहस्य खोलकर दिखाने लगेगी। अमृत वर्षा होगी। स्खलन कालीन क्षणिक सुख घंटो वाला हो जाएगा। ऐसी मस्ती कि उसमें से निकलने का मन ही नहीं करेगा। उसके साथ-साथ जीना चाहें तो कुछ घटो बाद सामान्य मनुष्य का शरीर साथ नहीं दे सकता।
सांस उत्तेजना, धड़कन आपके हाथ में आ तो गये, लेकिन सीमा बनी हुई है कि शरीर को स्थिर शांत कर या तो ध्यान की ओर बढ़ें या फिर उतर कर जान बूझकर भी इसी दुनियाँ में अन्य मनुष्यों की तरह जिएं।
उसी तरह योग में जो उस स्थूल शरीर के भीतर एक पहला स्वतः संचालित क्रियात्मक प्राणमय शरीर और अनुभव करने वाले शरीर मनोमय का बोध होता है, उसमें काफी समय लग जाता है। तन, मन की चंचलता को शांत करने या स्वतः शांत होने दोनो में बहुत विघ्न आते हैं।
तंत्र में और खाशकर लोकप्रचलित प्रणाली कहें या सिद्ध पंथ वाली उसमें मात्र एक सप्ताह से इक्कीस रोज के अंदर अन्नमय, प्राणमय, एवं मनोमय शरीर की संरचना एवं गतिविधि का साक्षात्कार वाला अनुभव हो जाता है। न भय, न घबराहट, शर्त यह है कि 10-20 लोगों की मंडली हो। वे एक दूसरे का भला करने वाले हों, उनमें विभिन्न आयु वर्ग के और स्त्री पुरुष दोनों हों तो समय कम लगेगा। बिल्कुल घरेलू सामाजिक व्यवस्था। न सबको तन से नंगा होने की जरूरत, न दारू, न संभोग फिर भी मन से नंगा होना जरूरी है। मन से परिचय करना है तो मन तो नगा करना ही पड़ेगा। उसके मनका कपड़ा उतारना पड़ेगा। इस तरह का किया कम, कराया अधिक, जानेवाला अभ्यास तंत्र हो गया। यही सब तो शादी-विवाह के अवसर पर मात्र 20-25 वर्ष पहले तक हो रहा था। कुछ कुछ अभी भी हो रहा है।
योग में कहें तितीक्षा, पार करने की इच्छा, बर्दास्त करने की बात।नदी तैर कर अकेले पार किया तो डूबने का खतरा। भीतर की अनुभूति के समय तो मनुष्य एकेला ही है। भम्र एवं भय दो बड़े खतरे हैं। तंत्र में अनुभवी लोग बाहर से देख रहे हैं। कहा गया कि हम जो भी करें तुम चुप रहना (साधक, साधिका, जो हो) बर्दाश्त करना, गाली दें, चिकोटी काटें, मार-पीट करें, आरती करें, सुंदर भोजन दें, ललचाएँ, रूप-कुरूप, भला-बुरा जो करें तुम मजे लो, मौन में हँसा। सोने तो दंगे नहीं, देखतेे रहेंगे कि इसकी मनोदशा कैसी कहां पर चल रही है। बच्चे से बूढे तक सभी लोग लगे हुए हैं सिखाने में। खेल-तमाशे हो रहें हैं। यह तो गया तंत्र, ऐसी प्रक्रिया में व्यक्ति बिना अधिक मिहनत के सकुशल हँसते-खेलते पार हो गया। फिर वह दूसरों के लिए खेल भी गढ़ सकता है और मार्गदर्शन भी कर सकता है।
मस्तिक में चतना की आकृतियाँ हैं। मुझे भीषण ज्वर में कुछ यंत्रों का साक्षात्कार हुआ, कुछ ध्यान मे,ं यह योग हुआ। बाहर में यंत्र लिखकर भीतर के यंत्रों की छाप/स्मृति को सक्रिय करना तंत्र हो गया।
इस प्रकार से उदाहरणों के द्वारा योग और तंत्र के अंतर को वर्गीकृत किया जा सकता है लेकिन अनुभव में हुआ तो साथ ही साथ उसी शरीर में न। इसलिए सिखाने वाले उदार गुरु तंत्र के वर्गीकरण या उसे सिखाने न सिखाएँ उस चक्कर में नहीं पड़ते। हर स्थिति का लाभ उठाने को कहते हैं। आप जप करें यह भी विधि है। किसी मंदिर में जा कर जहाँ देर तक सामूहिक कीर्तन हो रहा हो। उसे सुने यह भी विधि है। 
कितना उदाहरण दें। आशा है, आप तक कुछ न कुछ मेरी बात पहुँच गई होगी। भाई उदय जी आप ने स्वयं अपना साधनात्मक परिचय नहीं दिया है। अपने या अपने गुरुजी के बारे में नहीं बताया और प्रश्न इतना गहरा? पता नहीं आपकी परीक्षा में मुझे कितने अंक मिलेंगे? परिचय रहने पर साधक को उसके अनुरूप उत्तर देने में सुविधा होती है।
मेरे मन में तो आता है कि आरंभिक परिचय वाला ऐसा परिवारिक कार्यक्रम बनाना चाहिए। उससे लोक लज्जा का भय भी नहीं रहेगा और आसानी से बच्चे से बूढे़ तक हँसते-खेलते कम से कम अपने भीतर जाने के रास्ते से तो परिचित हो ही जाऐंगे। केवल एक उदारता चाहिए। उदारता अर्थ व्यवस्था की, जिससे सप्ताह तक रहने खाने की व्यवस्था निकले। उदारता छुआछूत से ऊपर उठने की। उदारता स्त्री-पुरुष, सधवा-विधवा, बच्चे-बूढ़े के तन के साथ मन को भी प्रेम पूर्वक स्वीकारने की, अपने हीं इष्टदेव अपनी हीं पद्धति की जगह इस बिना देवता, बिना बीज, मंत्र के अभ्यास की।
उस आरंभिक परिचय से तंत्रोक्त, दिग्बंधन, कवच, न्यास, अभिषेक इन सभी को पाठ नहीं, अनुभवात्मक रूप से समझने की सुंदर पृष्ठभूमि तैयार हो जाएगी। आप की मर्जी जिस किसी भी महाविद्या या देवी-देवता की साधना करें।
इससे अधिक यूँ ही क्या बकता रहूँ। अवसर पर कर लिखूँगा। उपर्युक्त जितना लिखा है।  वह अनुभूत है। ध्यानयोग, कंुडलिनी और लोकाचार वाला मेरा और पूरे समाज का जहां ऐसी साधना होती रही। हठयोग वाला आंशिक मेरा शेष मेरे मित्र साधकों का और वामाचार वाला वरिष्ठ साधकों का। चूँकि उस संसार में मैं कोई पहला तो हूँ नहीं अतः ये विधियाँ थोड़े-थोडे़ अंतर से पुस्तकों में वर्णित भी हैं।
उन्हीं बातों को दैनिक अभ्यास और कर्मकांड में डाल दिया तो सामान्य धर्माचरण की बात हो गई, परंपरा बन गई। जहाँ अनुभूति नहीं है, बिना सोचे समझे ज्ञानार्जन के, बस यूँ ही चल रहा है, वहाँ नियम आधारित खेल नहीं है। शुद्ध मनोरंजन वाला भी नहीं, बस देखा देखी खानापूर्ति वाला परंपरा का पालन है। उससे श्रद्धा तो है लेकिन वह ज्ञान से हीन है।
योग शास्त्र सीधा प्रशिक्षण है। यहाँ योग से मतलब हठयोग और अष्टांगयोग से है। सीधा रास्ता बताने में मनोरंजन नहीं होता न ही सामूहिकता की अनिवार्यता होती है। साधक एक अकेला, वैराग्य भावना वाला तटस्थ भूमिका का अभ्यास करता है। उसमें भी अपने मन की सूक्ष्म से सूक्ष्म गहरी अवस्थाओं का तटस्थ साक्षात्कार करता है। इसलिये योगी को बहुत अधिक संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती।
तंत्र की विधियों में खेल भावना, सामूहिकता, परोक्षता, उत्सव, रंग, ध्वनि, गीत, खाद्य सामग्री हीं नहीं, इस सृष्टि की किसी भी उपयोगी सामग्री को सम्मिलित कर लेनी की संभावना है। संरचना को केवल जानना नहीं, उसकी स्थूल, भौतिक, संासारिक संरचना का अनुभव करने पर भी उसे अपने वश में रखना है। इसलिए तंत्र मंें काम, क्रोध, लोभ, द्वेष और मोह सभी अपने छोटे से लेकर बृहत्तम रूप में स्वीकृत हैं। ये अस्पृश्य विषय नहीं हैं।
वह तांत्रिक कैसा जो काम भावना से भरा नही हो, क्रोध जिसकी आँखों से बरसता नहीं हो और हृदय अगाध करुणा से भरा नहीं हो। जो सबको अपना न मानता हो और जिसे यह स्पष्ट हो कि कैसे प्रकृति नहीं, महामाया इस सृष्टि में क्षण-क्षण रूप एवं भाव का परिवर्तन कर रही है। वह जीव मात्र में शिव-शक्ति, राधा-कृष्ण, प्रज्ञा-उपाय के मिलन, मिलन की आतुरता एवं मिलनोपरांत सृष्टि को देख देख उत्सव मनाता है, मृत्यु एवं विनाश पर खूब हँसता है।
आज जो तंत्र चर्चा होती है वह प्रायः बैखरी पाठ, उपांशु जप, बाह्य स्तुति, चमत्कार, जजमान को फुसलाने, धारणा का अभ्यास तक सीमित रहती है। इष्ट के साथ तादात्मय की पहली अवस्था में ही लोग डरते जाते हैं क्योंकि यह द्वैत को तोड़ता है और बाद में भ्रम को भी।
धारणा या मन को एकाग्र करने की विधि में कल्पना की सुविधा रहती है। यहाँ जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी, वाली सुविधा रहती है। यह होश संभालने वाली, सच्चाई को स्वीकार करनेवाली दशा नहीं है। यहाँ अपनी रुचि की मूल वृत्ति के अनुसार देवता की संपूण्र कल्पना में डुबने उतराने की सुविधा है। यह एक नशे के समान है। अतः कुछ लोग इस अवस्था तक नशे के माध्यम से भी पहुँचना चाहते हैं। तंत्र में मन को एकाग्र करने के लिये गीत, संगीत, लीला, कथा, अभिनय, नृत्य, उत्सव सब स्वीकृत है। चक्रपूजा, व्यूह भावना, मंडल गीत, योगी योगिनी के नृत्य, कथा, पूजा, प्रसाद, तीर्थयात्रा, ईष्ट एवं गुरु की जयंती, गुरुपूजा संप्रदाय या परंपरा में अपने को खोलने विकसित करने एवं एकाग्र रहने की सुविधा प्रदान करते हैं। इसमें भक्ति और संगठन की प्रधानता है। भीड़ को यही पसंद है लेकिन तंत्र सम्मत गहरी बातें तो इसके ऊपर हैं।
वहाँ मनमाना नहीं चलेगा, समर्पण करना होगा, वह भी अपने ही समक्ष। कल्पना वाले शिव के साथ धारणा जैस ही ध्यान में परिणत होगी। अर्थात एकाग्रता से बढ़कर तादात्म्य होगा वैसे ही पता चल जायेग कि धत्तेरे की यह तो मेरा भ्रम था, असली बात तो और गहरी है। यह एक साथ का संयोग और वियोग अनेक साधकों को सहन हीं होता, मनोविकृति आ जाती है। इसलिये इस विधि को गुप्त रखा जाता है। उसी तरह की प्रक्रिया क्रमशः गहरी होती जाती है। कल्पना की जगह प्रकृति पुरुष के असली रूपों का साक्षात्कार होने लगता है। यह भ्रम टूटना बहुत दारुण होता है इसलिए असली परंपरागत साधना विधि में स्थूल रूप के साथ सूक्ष्म रूप का वर्णन आरंभ से रहता है कि स्थूल आलंबन की जगह सूक्ष्मतर आलंबन का सहारा बना रहे।
इससे अधिक खोलने की कोई सार्थकता नहीं होगी। जो साधक साधिका चाहें अलग से चर्चा कर सकते हैं।


मंगलवार, 19 नवंबर 2013

कल्पना, धारणा और ध्यान


योग एवं तंत्र के साधक तथा दूसरे से चर्चा करने वाले असली सत्संगी भी प्रायः इन तीन बातों को अलग अलग नहीं समझने के कारण उलझते रहते हैं। कोई सुविधा के लिये, कोई असावधानी वश और अन्य गलत नीयत से सबको मिलाजुला कर एक कर देते हैं।
कल्पना
कल्पना में पहले से ही कोई दृश्य, रूप, घ्वनि बता दी जाती है कि आपको ऐसी कल्पना करनी है। कल्पना जब ठीक ठीक होने लगती है तो आंख मूंदने पर लगता है कि अरे यह तो सच में वैसा ही दिखाई सुनाई पड़ रहा है। इतना ही नहीं कल्पना करने वाला यह भूल जाता है कि मैं ने तो प्रयास पूर्वक ऐसी कल्पना की थी। कल्पना का यह लगाव इतना गहरा होता है कि अगर आप किसी को याद दिलाएं कि यह अनुभव तो आपकी कल्पना का ही घनीभूत परिणाम है, वह व्यक्ति बेशक आपसे झगड़ जायेगा। पूजा-पाठ उपासना में लगे अधिकांश लोग इसी तरह के भ्रम में जीना पसंद करते हैं। उलटे जो होश में रहें उन्हें नास्तिक कहते हैं। कल्पना को धारणा में बदला जा सकता है लेकिन प्रायः लोग कल्पना के चिस्तार में लग जाते हैं।
धारणा
मन को किसी भी विंदु जिसे आलंबन कहा जाता है, उस पर एकाग्र करने एवं वहां हो रहे अनुभव से गुजरने अर्थात उसे स्वीकार करने को कहा जाता है। किसी भी आलंबन पर मन के एकाग्र होने के क्रम में ही अनेक अनुभूतियां हो ने लगती हैं। समर्थ गुरु उनके कारणों एवं संदर्भों को पहचानता है। कुछेक अनिष्टकारी अनुभूतियों को छोड़ अभ्यास करने वाले को अभ्यास में ही टिके रहने की सलाह दी जाती है। इस अभ्यास से भी लगता है कि मैं तो वही हो गया। मन, मन को एकाग्र करने की क्रिया और एकाग्र करने वाले का अंतर भी एक समय मिटने लगता है। लोग अक्सर घबराकर इस अनुभूति के पहले ही भाग खड़ा होते हैं।
ध्यान
धारणा जब पूरी होने लगती है, शरीर के भीतर प्रकृति प्रदत्त ध्वनियों, कार्यप्रणालियों, मस्तिष्क के खांचों, अंतःस्रावी ग्रंथियों आदि से अपने भीतर ही अनुभवात्मक साक्षात्कार होने लगता है। कुछ कुछ नियंत्रण जैसा भी महसूस हो सकता है। इस तरह की अनेक बातें होती हैं।    ध्यान धीरे-धीरे सूक्ष्म होता जाता है और सूक्ष्म से सूक्ष्म अनुभूतियां भी होती हैं। इससे अधिक कहना संभव नहीं है।
मेरी कुल परंपरा भटके साधकों की चिकित्सा एवं सेवा की है। अतः साधक-साधिका के प्रयास के प्रति सहानुभूति एवं आदर के बावजूद उसकी उलझन सुलझाने के लिये तथ्यपरक तो होना ही पड़ता है। सामान्यतः लोग कल्पना की जिद में उलझते हैं। उसे ही उपलब्धि मान बैठते हैं। यह नशे की तरह सुखद और दुखद है। भयानक पीड़ा से बचाव में दवा और बाद में दारू की तरह काम करता है। मैं वाम मार्ग या कौल परंपरा के बारे में साधकों से सुनी हुई और ग्रंथों में वर्णित बातें ही जानता हूं और वे बातें जो दुर्घटनावश बाहर आ गईं।

धारणा में आगे बढ़ने से घबराये हुए लोग अपने धारणा स्तर के अनुभव को ही पकड़ कर उसे समाज में मनवाने ओर किसी न किसी प्रकार गुरु बनने को बेचैन हो जाते हैं।
इस प्रकार जिद तथा भ्रम में पड़े लोगों से तब तक चर्चा नहीं हो पायेगी, जब तक वे यह मिलाने को तैयार न हों कि वे तो कल्पना या धारणा में ही अभी हैं। उनमें यह उदारता आने पर ही वार्ता हो सकती है कि जैसे आपने अनुभव किया उसी तरह दूसरे का अनुभव भी तो सुनिये समझिये।

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

सुरति-सूत्र 3


भूमिका

       भारतीय समाज इस दृष्टिगोचर संसार के साथ इसके अतिरिक्त एक रहस्यावृत लोक में भी विश्वास करता है। उसे सामान्य लोगों को उपलब्ध सुुख की इच्छा तो है ही रहस्यावृत सुख की भी आकांक्षा है, जिसे मोक्ष, महासुख, चरमसुख, निर्वाण आदि के नाम से भारतीय समाज जानता एवं मानता है। इस रहस्यावृत सुख की प्राप्ति का उपाय कुछ लोगों ने इस संसार एवं इस संसार के प्रचलित सुखों का परित्याग बताया है तो कुछ लोगों ने इस संसार के सुखों के भोग के साथ मोक्ष, निर्वाण या इसके समतुल्य अवस्था की उपलब्धि का मार्ग बताया है। भोग के साथ मोक्ष पर विश्वासवाली धारा ने इस विषय पर गंभीर और व्यापक कार्य किया है। कुछ लोग केवल सांसारिक सुख के भोग पर ही विश्वास कर उभयविध भोग की संभावना को ही नकारते हैं। यह उनके अज्ञान के कारण है। योग एवं तंत्र की प्रक्रिया के अज्ञान के कारण ही निराशा या निषेध की प्रवृत्ति विकसित हुई है।
        जो लोग योग या तंत्र का विधिवत अभ्यास करते हैं उन्हें वस्तुस्थिति का ज्ञान रहता है कि सुख के दोनो ही प्रकार सही एवं एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं हैं।
       यही बात यौन-सुख, काम-सुख, रति-सुख, आदि के रूप में ज्ञात सुख पर भी लागू है। इतना ही नहीं रति-सुख का स्थान सभी सुखों में महत्त्वपूर्ण एवं आकर्षक माना गया है। यह प्रत्यक्ष अनुभवगम्य है, इसमें किसी तर्क को आधार मानने की आवश्यकता नहीं है।
        एक ओर समाज में यौन सुख के प्रति गहरा आकर्षण है, यौन सुख के चरमोत्कर्ष को मुक्ति, निर्वाण की बराबरीवाला उच्च स्थान प्राप्त है वहीं दूसरी ओर यौन सुख के विरोध में भी अनेक प्रकार से  स्वर उठानेवाले लोग हैं । इस प्रकार  कई  ढोंग अनावश्यक विकसित होते चले गये हैं । अत्याचार, प्रतिरोध, कपट आदि ने इस ढ़ोंग को अपना ढाल बना लिया और बलात्कार, वेश्यावृत्ति, स्त्री या पुरुष की खरीद-फरोख्त, दास-दासी प्रथा, वेमेल विवाह जैसी अनेक कुप्रथाएँ अर्द्धनैतिक रूप से स्वीकृत हो गयीं । युद्ध की नैतिकता विजेता को सामूहिक बलात्कार का अधिकार दे देती है । यह प्रकृति के विरुद्ध है । इससे बलात्कारी कभी भी तृप्त नहीं होता, वह तो आगे चलकर उन्मादी एवं मनोग्रंथियों से ग्रस्त हो जाता है, पीडि़त या पीडि़ता प्रतिरोधी या अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं ।
स्वंय उलझकर या आधा-अधूरा अनुभव प्राप्तकर जब हम निर्णायक बनते हैं तो समस्या निंरतर उलझती जाती है । कोई सूत्र ही नहीं मिलता । बातें परस्पर विरूद्ध लगती हैं । अनावश्यक कौतूहल, दमन, एवं बढ़ते आकर्षण का संकट गहरा होता जाता है ।
                इन बातों की सच्चाई को स्वीकार करते हुए इस पुस्तक में सहज प्राकृतिक नियमों का निरूपण किया गया है । प्रयास किया गया है कि अब तक के सभी प्रमुख यौन सुख संबंधी प्राकृतिक उपायों का समावेश हो एवं वर्तमान की उलझनों को सुलझाने का ऐसा सुलभ मार्ग हो जो  अधिकतम लोगों को अनुकूल हो । जो ढोंगी, अतिवादी या अत्याचारी हैं, उन्हें यह पुस्तक बिलकुल नापसंद होगी क्योंकि यह उनके मुखैटे को उतारने का प्रयास करती है । लंबी अवधि तक चुंबन, अलिंगनादि प्रारंभिक क्रीड़ाओं से लेकर भागलिंग के घर्षण तक की- प्रक्रिया यहाँ भी स्वीकृत है किंतु गहरा सुख, गहरी तृप्ति तो  स्खलनकालीन सुख की गहराई एवं विस्तार में उतरने में है । उस चरम अनुभूति के काल की वृद्धि जो सामान्य जनों के लिए कुछ क्षणों के लिए होती है जब घंटों, दिनों एवं असीमकाल तक हो सकती है तब वह आनन्द वस्तुतः इतना गहरा होता है कि संसार के सभी सुख उसमें समा सकते हैं । इसकी उपलब्धि विपरीत लिड्ग़ी के सहयोग से रतिक्रिया के द्वारा एवं योगभूमि में ध्यान-प्राणायाम द्वारा अपनेशरीर में बिना किसी बाहरी संयोग के भी संभव है। यही भारतीय सिद्ध परंपरा की मानवता को देन है ।
विभागः- इस छोटी सी पुस्तक में 80 सूत्र है जो चार अध्यायों में विभक्त हैं। पहला- आधार खण्ड है । इसमें रतिसुख विषयक मूलभूत प्राकृतिक सिद्धांतों को सूत्रबद्ध किया गया है । दूसरा विक्षेप खण्ड  है, इसमें यौनसुख संबंधी उलझनों एवं उसकी प्रक्रिया का निरूपण है । तीसरा खण्ड उद्धार खण्ड है । इस खण्ड में यौन सुख की सामान्य एवं उदात्त अवस्थाओं का वर्णन है । चौथा खण्ड- उद्धार साधन खण्ड है । इस खण्ड मेें रतिसुख की उदात्ततम अवस्था तक पहुँचने के अनेकविध उपायों के साथ  इस संसार के सुखों की प्राप्ति की मूलभूत प्रक्रियाएँ संग्रहीत हैं ।
 सावधानियाँ एवं स्पष्टीकरण
      कामसूत्र जैसी,विस्तृत एवं विख्यात पुस्तकों के बाद भी ‘रति-सूत्र’जैसी संक्षिप्त पुस्तक की प्रबल आवश्यकता है एवं सार्थकता है, जिसे सावधानियाँ एवं स्पष्टीकरण शीर्षक के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया है।

सावधानियाँ एवं स्पष्टीकरणः-
कामसूत्रः-यह काम को विलास के रूप में ग्रहण करता है। उसकी विधियाँ मूलतः राजे-महाराजों के वैभव विलास के लिए है। सामान्य मनुष्य के लिए यह बहुत कम उपयोगी है। यह कामानंदतक सीमित है,उसके उदात्ततम रूप ब्रह्मानंद तक इसकी गति एवं दृष्टि नहीं है। परदारागमन, वाजीकरण के विविध योग एवं उपाय इसे स्थूल स्तर तक सीमित एवं नीति निरपेक्ष बनाते हैं। यह पुरुष प्रधान है।

रतिसूत्रः-यह पुस्तक काम को पुरुषार्थ एवं उपादेय मानती है इसलिए परोत्पीड़न, खंडित सुख के स्थान पर कामानंद से ब्रह्मानंद तक का मार्ग भी बताती है।
-रतिसुख को लक्ष्य मानने पर अन्य बातों की चिंता बेकार है।
-मनुष्य का अस्तित्व निरपेक्ष नहीं है। अतः सहयोगी के साथ पूरा वातावरण ही उसे प्रभावित करता है।
यह पुस्तक काम को उपादेय पुरुषार्थ के ंरूप मंे भौतिक रूप में एवं उसके सर्वसुंदर, सर्वव्यापी रूप में स्वीकार करती है । इस प्रकार कामशास्त्र, योग एवं तंत्र तीनों परंपराओं के प्रति यह पुस्तक आभारी है ।
इसमें वर्णित सिद्धांत एवं सूत्र उन साधकांे के अनुभवों पर    आधारित हैं, जिन्होने शास्त्रीय वचनों का गुरुपरंपरा से आचार एवं प्रयोग में लाकर परीक्षण किया है । उन साधकों के अनुभवों को भाषा एवं आकार देने का कार्य हमने किया है । इसलिए जो सत्य है वह हरगौरी का है, राधाकृष्ण का है, सिद्धों का है, साधकों का है, जो भ्रांति है वह हमारी है ।
सुधी-जनों का सुझाव एवं सहयोग सादर प्रार्थित है।
                                 रवीन्द्र कुमार पाठक
                               



       आधार खंड की परिचायिका          
       इस संसार में भौतिक रूप से रति-सुख सर्वाधिक आकर्षक है। संसार की प्रजनन क्रिया और रति-सुख का रिश्ता भी करीबी है। भारतीय परंपरा में गृहस्थों (सामान्य जनों) के लिए जीवन के चार लक्ष्य है- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। ‘‘काम’’ के अर्थ के संदर्भ में मतांतर  हो सकता है किंतु यहाँ ‘‘काम’’ का अर्थ सामान्य रूप से सभी प्रकार के इंद्रियग्राह्य सुख एवं मैथुन-सहवास का सुख विशेष रूप से अभिप्रेत है। आगे इसी अर्थ में ‘‘काम’’ शब्द का व्यवहार होगा।        
       सुख पाने में सभी इंद्रियाँ प्रवृत्त हैं फिर भी मैथुन सुख के सामने सामान्य जन (भूख आदि की शांति के बाद) अन्य सुखों को गौण ही मान पाते हैं। मैथुन सुख भी सभी को समान रूप से प्राप्त नहीं हो पाता है। इसी कारण मैथुन सुख प्राप्ति में  सबकी प्रवृत्तियों एवं वेग में अंतर पाया जाता है। सुखानुभूति के इसी अंतर के कारण सामान्य लोगों से लेकर विचारकों, चिंतकों तक की धारणाओं में अंतर पाया जाता है। जो विचारक प्रत्यक्ष अनुभव प्रमाण की तुलना में आप्त आदि प्रमाणों में अधिक श्रद्धा रखते हैं, वे प्रायः बिना समझे-बूझे बकते रहते हैं या परंपरा और लोक लज्जा आदि के व्यावसायिक भय से सत्य बात को प्रकाश में नहीं लाते । आज के वैज्ञानिक युग में अनुशासित सत्यान्वेषी जिज्ञासुओं (सायंस की विवेकशीलता में विश्वास करनेवाले) के बीच सत्य को प्रकाशित करना जरूरी है। योग एवं विज्ञान की विविध धाराओं की यही वर्तमान परंपरा है। अतः रति-सुख संबंधी चर्चा अब गोपनीय नहीं रह सकती ।

आवरण हटाएंः-
       आहार, निद्रा, भय एवं मैथुन भारतीय परंपरा के अनुसार अन्य प्राणियों की तरह मानव में  भी  नैसर्गिक  है । मैथुन को अनैतिक, समाज-कल्याण-विरोधी,  आत्म-कल्याण-विरोधी, ज्ञान-विरोधी,
धर्म-विरोधी या नैतिकता-विरोधी लाख कहते रहंे, समाज एवं परिवार की धुरी आज तक काम ही है। इस विषय पर आवरण द्वंद्वात्मक भावनाओं एवं प्रश्नों का जनक है, जैसे- ऋषियों की  संततियाँ थीं और ब्रह्मज्ञान के बिना ब्रह्मचर्य तो मिलता ही नहीं, विश्वामित्र, नारद, व्यास को भी स्त्री की अभिलाषा हुई और कुछ ने प्रजोत्पत्ति भी की। कृष्ण को नैष्ठिक ब्रह्मचारी क्यों कहा गया ? विवाहित पुरुष का पर स्त्री से शारीरिक संबंध उचित है या नहीं ? स्त्री को तो सती-पतिव्रता होना चाहिए किंतु संतानोत्पत्ति के लिए पर पुरुष से सहवास क्या परंपरा में विहित नहीं है ? मुक्त यौन-संबंध या समलैंगिक सुख को मान्यता क्यों नहीं ? गृहस्थ बड़ा या संन्यासी ? वामाचारी ठीक या दक्षिणाचारी ? वैष्णव ठीक या शाक्त? इस प्रकार के अनेक प्रश्न लोक मानस में उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं। इनका उत्तर पाने के लिए खुला चिंतन जरूरी है और इसके लिए जरूरी है अपनी बद्धमूल मान्यताओं के आवरण को हटाना।
        इसके लिए आप स्वयं पहले अपने अनुभवों को स्मरण करें और उनके अंतर के संदर्भो को स्मरण करें। कुछ बातें यहीं से समझ में आने लगेंगी। विद्वज्जन योग एवं तंत्र के रहस्यों को प्रकाश में लाएं। आधुनिक विज्ञान गं्रथियों के श्राव, तंतुओं के तनाव एवं रक्त बहाव की भाषा में समझ लेगा? जो बचेगा उन्हे अल्फा, बीटा, थीटा, गामा तरंगों को नापकर समझ लेगा। ऐसा करने पर आप तंत्र को समझ सकेंगे। खजुराहो, कोणार्क, एवं पुरी का मूर्तिशिल्प भी समझ में आयेगा। कृष्ण, शिव को समझने में सुविधा होगी। सामाजिक समस्याओं पर यथार्थ पकड़ हो सकेगी और आपका तनाव बहुत हद तक दूर हो सकेगा। घृणा, मिथ्या दंभ, लालच, कंुठा, हीन भावना से मुक्त होने में बहुत सहायता मिलेगी।

रति-सुख, रति-शास्त्र, यौन-शिक्षा
रति सुख हमारा अभीष्ट है तो रति-शास्त्र भी होना चाहिए और उसकी व्यावहारिक शिक्षा भी होनी चाहिए। अभी तक वात्स्यायन एवं परवर्ती आचार्यों के जो प्रचलित शास्त्र हैं- वे सुख के न्यूनतम भाग की प्राप्ति का उपाय बताते हैं। यथार्थ में ये शास्त्र रतिसुख की प्राप्ति की पराकाष्ठा (स्खलन-विसर्जन, विस्मृति-सुख) की पूर्वावस्था (उत्तेजना-प्रधान-सुख) को बढ़ाने के उपाय खोजने में ही थक जाते हैं। इन शास्त्रों से काम नहीं चल सकता। ये एकांगी हैं। हमें यथार्थ को अधिक व्यवस्थित एवं सटीक रूप से जानना है। अतः रतिशास्त्र में उपर्युक्त सभी विषयों की गवेषणा का समावेश अपरिहार्य है अन्यथा रतिशास्त्र व्यभिचार एवं उत्तेजना का शास्त्र मात्र बनकर रह जायेगा और क्षणिक आनंद, आकर्षण, व्यग्रता, असंयम, निराशा, हिंसा को बढ़ावा देता जाएगा।
       भारत में यौन-शिक्षा के प्रचार-प्रसार की जरूरत शहरी लोगों द्वारा बताई जा रही है, जिन्हें गांवों के बारे में सोचने की फुर्सत नहीं है। गांव के बच्चे-बच्चियों को पशुओं की उपमा द्वारा 20 मिनट में ही उपयोग की बातें बता दी जा सकती हैं। परिवार के पंरपरागत विविध अंतरंग मजाकिया रिश्तेवाले सदस्य विवाह या विवाह के निकट-पूर्व बता भी देते हैं और जो समझ (सैद्धातिक) आधुनिक यौन शिक्षा दे सकती है, वह उन्हे प्राप्त हो जाती है क्योंकि पशु-पालन के क्रम में स्तनपायी जानवरों की विविध अवस्थाओं जैसे- शैशव, यौवन, रत्युद्रेक, (सहवास की प्रबल इच्छा) असंयमित रत्युद्रेक, कृत्रिम कारणों, शल्यप्रक्रिया या बीमारी के कारण सहवास, गर्भ-वृद्धि, प्रसव, प्रसव-पीड़ा, प्रजनन-सुख, वात्सल्य-सुख और पुनः वयवृद्धि के साथ प्रजनन के पूर्वाभ्यास से लेकर प्रजनन तक की प्रक्रिया का वे केवल न चश्मदीद गवाह बनते है, अपितु कभी कभी उनका आंशिक सहयोगी भी। जानवरों के गर्भाधान के  लिए मादा को लेकर  सांड़, भैंसे, बकरे के पास ले जाना गांव के बच्चे या युवक के लिए आम बात है और जानवर पर्दे में बच्चा पैदा नहीं करते। यह बात धनी से गरीब सब के लिए आम बात है और गोपनीयता की तो कोई कल्पना ही नहीं करता। चर्चा के लिए शिष्ट, अशिष्ट सभी तरह के शब्द प्रचलित हैं। गरीबी जहां जितनी अधिक है, आवरण उतना ही कम। गांव के लोग केवल गर्भ-निरोध एवं कृत्रिम-प्रजनन की विधियों की विविधता एवं लिखित तथा उत्तेजनाशास्त्र को नहीं जानते हैं ।
रति-सुख क्या है?
       स्त्री-पुरुष का एक दूसरे के प्रति वैसा आकर्षण, जो रति-क्रिया में जाकर विलीन होता हो यह एक भाग है। रति-क्रिया, जिसमंे दोनो के शरीर मूल उपादान हैं दूसरा भाग है और उत्तेजना-विसर्जन, विस्मृति, आनंद आदि तीसरा भाग है। तीसरे भाग का चरम आनंद एवं विस्मृति, जो प्रायः क्षणिक एवं अनुभवगम्य है, व्यापक एवं स्थायी प्रभाव उत्पन्न करता है क्यांेकि रति-सुख अन्य सुखों से अनुपूरित एवं विशिष्ट है। यही कारण है कि इसके प्रति लोगों का आकर्षण अत्यधिक है। सुखानुभूति की प्रक्रिया अभी भी शोध का विषय है, फिर भी बहुमान्य तथ्य (जो यथार्थ) है कि ज्ञानेन्दियों द्वारा अपनी इच्छानुकूल अनुभूति की सूचनाएँ मस्तिष्क के संग्राही केंद्र को प्राप्त होती हैं, तब मन को और उस माध्यम से व्यक्ति को सुखानुभूति होती है। रति-सुख में सुखानुभूति का अंतर इसी प्रक्रिया के विविध अंतरों के कारण आता है। स्वस्थ व्यक्ति में रति-क्रिया के विविध चरणों का संबंध विविध अंतःस्रावी ग्रंथियों से एक निश्चित क्रम में रहता है और शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य/संतुलन के अभाव में यह क्रम टूट जाता है, परिणामतः रति-सुख की अनुभूति व्यक्ति-विशेष को भी समय समय पर भिन्न या विविध व्यक्तियों को विविध प्रकार की ं होती हैं।
       यह आनंद मिथुन (जोड़ां)े को व्यावहारिक रूप से होता है। यह श्रृंगार रस का विषय है। इस  आनंद प्रक्रिया को ‘अभिनवगुप्त’ के सूत्र की भाषा में ‘विभावानुभावव्यभिचारि-संयोगाद्रसनिष्पतिः’ कह सकते हैं। रति-सुख का सांसारिक रूपवाला चरम आनंद उसे ही प्राप्त हो सकता है, जिसकी पांचों ज्ञानेंद्रियाँ अपने विषयों को एकत्र अपने साथी में पा जाती हैं और मन किसी प्रकार के निषेध या भय से मुक्त रहता है, जैसे रूप, रस, (होठ आदि चूसकर स्वाद पाना) गंध (विविध प्राकृतिक त्रावों के या अस्वस्थता में दुर्गंध होने पर इत्र आदि द्वारा) शब्द, (मधुर प्रेमालाप या सीत्कार आदि प्राकृतिक शब्द) स्पर्श (संपूर्ण शरीर सामान्य रूप से ) स्वेच्छापूर्वक एवं गुप्तांग उत्तेजना-ग्राहक संवेदनशीन अंग का विषय । स्खलनकालीन अनुभूति की गहराई एवं अवधि का विस्तार जितना अधिक होगा सुख, स्वास्थ्य आदि उतने ही बढे़ंगे।
       सांसारिक शब्द जोड़ने का सीधा मतलब आम आदमी से है। इस संसार में बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो मजबूरी में (अधिकांश) या स्वेच्छा से (बिरले) रति-सुख पाने की अन्य प्रक्रिया को चुनते हैं। जैसे हस्तमैथुन आदि अप्राकृतिक मैथुन या चरमानुभूति को बढ़ाने की जगह रति’क्रिया काल को बढ़ाना। रतिक्रिया काल में भी एकाग्रता तो आ ही जाती है औार पांचों ज्ञानेंद्रियों का एकाग्र समन्वित सुख भी कम प्रभावकारी नहीं होता। ऐसा वे लोग करते हैं जो विस्मृति से डरते हैं या विस्मृति एवं आनंदानुभूति के काल की क्षणिकता तथा बाद के शैथिल्य की स्मृति जिन्हें दुखी कर देती है विशेषकर जिन युगलों के बीच के जीवन में गहरे प्रेम एवं समर्पण का अभाव हो एवं या बिस्तर पर कम से कम दो-तीन घंटे स्खलनोंपरांत सोने का अवसर न प्राप्त होता हो या जो इसी प्रक्रिया को गर्भ-निरोध का अंग बनाए हुए हों। कृत्रिम रति सुख के प्रकारों मे से कुछेक की चर्चा आगे की जा रही है। इस प्रकार के रति-सुख को कृत्रिम इस लिए कहा जा रहा है क्योंकि व्यक्ति को इसमें कल्पना का सहारा लेना पड़ता है। कामुक वर्णन, चित्रादि से युक्त साहित्य या प्रत्यक्ष युगल प्रेम-क्रिड़ा का दर्शन कुछ लोग अपनी दभित इच्छा की पूर्ति करते हैं। आजकल ब्लू फिल्में देखने का उदाहरण आ सकता है।

तात्त्विक रति सुखः-
        रति-सुख का यही प्रकार गोपनीयता एवं विवादों से भरा है और आम आदमी की पहुँच यहाँ तक नहीं है। यही योग, तंत्र, परामनोविज्ञान आदि की गवेषणा का विषय है। फिर भी इसे समझना या इस सुख को भोगना कोई असंभव कार्य नहीं है। मेरी दृष्टि से तो इस सुख के क्षेत्र में प्रवेश अति दुष्कर भी नहीं है। इस सुख का मानसिक स्वरूप और प्रक्रिया भी मिथुन जन्य सुख की तरह ही है। स्नायविक संरचनाओं का क्रिया-व्यापार, तांत्रिका-तंत्र द्वारा संवेदनाओं का अनुभव एवं मस्तिष्क को सूचना, संप्रेषण की प्रक्रिया भी बहुत हद तक वही है। इसमें भी कामोत्तेजना की अनुभूति होती है। गुप्तांग एवं उसके आस पास के भागों में रक्त संचार एवं उत्तेजनात्मक अनुभूति उसी प्रकार की होती है, मांसपेशियों, रक्तवाहिकाओं की शारीरिक प्रतिक्रिया भले ही भिन्न हो, मानसिक अनुभूति पूरे शरीर में वैसी ही होती है और अधिक गहरी तथा प्रभावकारी होती है। जैसे सामान्य सहवास में उत्तेजना को संभालना कठिन होता है और शीघ्रस्खलन की समस्या रहती है या अतृप्ति की दशा में स्नायविक तनाव जन्य समस्याएं पैदा होती हैं उसी प्रकार उत्तेजना न संभाल पाने की दशा में कई प्रकार की समस्याएं होती हैं। स्खलन की आशंका तो नहीं रहती है किंतु कामाग्नि बुरी तरह भड़कती है और केवल रति-सुख का वेग रहता है। रूप, रस, गंध, शब्द, कुछ भी मायने नहीं रखते। सहवास के समय की उत्तेजना की तरह की उत्तेजना ही प्रमुख रह जाती है। आप यदि इस उत्तेजना को संभाल लेते हैं तो उत्तेजना की चरमावस्था पर सहवास के समय का पराकाष्ठावाला क्षण आता हैं, आपको भय हो सकता है, अब स्खलन हो जाएगा और पुनः वही पुरानी समस्याएं शिथिलता, थकान आदि आ खड़ी होंगी किंतु होता ऐसा नहीं है। एक क्षण आत्मविस्मरण का आता है और तदनंतर आनंदानुभूति की अवधि आती है, जो व्यक्ति के अंतर से मिनट दो मिनट से लेकर घंटों तक का हो सकता है, जो सुख सांसारिक आम आदमी के जीवन में क्षण मात्र के लिए आंशिक रूप से आकर ललचाकर चला जाता है।
       इस तात्विक (केवल रति-सुख) अनुभूति को भी अन्य उपायों से पाया जाता है और फिर एक गहरी अनुभूति क्रम इसी प्रकार  चलता रहता है। जिसने वह रस पिया उसे क्षणिक रस में कोई आनंद नहीं आएगा लेकिन ऐसे अनेक उदाहरण प्राप्त हो सकते हैं। जहाँ साधक ने आत्मरति की पूर्वोक्त प्रक्रिया के अधीन दीर्घकालीन अनुभूति प्राप्त की हो और विपरीत लिंगी के साथ सहवास हेतु आतुर भी हो। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि आत्मरति में उत्तेजना की प्रगाढ़ता का स्तर चाहे जो हो रूप, रस, गंध, शब्द आदि बाह्य विषयों का आलंबन एवं सहयोग नहीं प्राप्त हो पाता है। इसलिए अनेक    साधक बाद में रूप, रस, शब्द, गंध आदि के प्रबल आकर्षण के माध्यम से  स्त्री या पुरूष के शरीर में, तदनंतर रतिक्रिया में आसक्त हो जाते हैं।






           प्रथम अध्याय
     



              आधार खंड


1.  अथ रतिचर्चा
     अब यहाँ से रति-विषयक चर्चा का शुभारंभ किया जा रहा है ।
ष्     अथ षब्द षुभारंभ का वाचक हैै। यह स्वयं मंगलवाची है। हमारा जीवन आनन्दमय हो यह हमारी सनातन इच्छा है और यह रति तो संपूर्ण घनीभूत सुखों की पराकाष्ठा है। आगे रति की प्रक्रिया के क्रम में जीवन के सबसे धनीभूत आनन्द तक पहुँचने के मार्ग एवं उपाय की चर्चा की जाएगी।

2. रतिशब्दः नानार्थकः
         रति शब्द का प्रयोग अनेक अर्थांे में होता है,जैसे-मदन प्रेम/की पत्नी आकर्षण, रुचि, सुख आदि ।

3. कामार्थे सामान्येन प्रयुक्तः
     काम के अर्थ में साधारणतया इस शब्द का प्रयोग किया जाता है।
        भारतीय संस्कृति में स्त्री-पुरुष के सहज आकर्षण को शुभ एवं दैवी माना गया है। स्त्री में यौन इच्छा सदैव रहती है। उसे बहुत प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती। ऋतुकाल में स्वतः यह प्रगट होती है। ऋतुकाल दो प्रकार का होता है, वसंत आदि सामान्य एवं मासिक धर्म का समय। ऋतुकालीन इच्छा का आदर करना अनिवार्य है क्योंकि यह धार्मिक कृत्य है। ऐसा न करने पर उस स्त्री का पति पाप का भागी होता है। इसी कारण विवाह के योग्य कन्या का विवाह न करनेवाला पिता भी पाप का भागी होता है। ऐसा निरूपण धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में अनेकत्र किया गया है। इसी रूप में काम व्यक्ति के जीवन के चार लक्ष्यों में एक है। पुरुषार्थ चार हैं -धमर्, अथर्, काम एवं मोक्ष। काम पुरूषार्थ के संदर्भ में रति शब्द का सामान्य रूप से प्रयोग होता है।

4. इह विपरीतंिलंगिसम्मिलनसुखे रूढ़ः
     यहाँ यह शब्द विपरीत लिगियों के सम्मिलन में होनेवाले सुख के संदर्भ में पारिमाषिक रूप से प्रयुक्त है ।
        जब कोई शब्द भिन्न अर्थांेवाला हो तो उसके माध्यम से चर्चा को आगे बढाना कठिन होता है, मतिभ्रम की आशंका होती है इसलिए अर्थ को स्पष्ट एवं  निर्धारित करना आवश्यक होता है। इसी दृष्टि से यहाँ रति शब्द का प्रयोग 7 हीं। रति शब्द का प्रयोग केवल मनुष्य ही नहीं सभी प्रकार के विपरीत लिगिंयांे के संदर्भ में समझना चाहिए। इसी प्रकार समान लिंगियांे में भी आकषर्ण होता है। कुछ लोग समलैंगिक अप्राकृतिक मैथुन में भी सुख अनुभव करते हैं। किंतु यहाँ वैसा सुख रति शब्द के अर्थ के रूप में ग्राह्य नहीं है।
5. तदपि पूर्णांश भेदेन भिन्नः
     वह भी पूर्ण एवं अंश के भेद  से भिन्न होता है ।
        यह रति सुख भी पूर्ण एवं अंश के भेद से भिन्न होता है। मिलन की प्रक्रिया में विविध स्तरेां पर आंशिक सुख होते हैं। जब मिलन की प्रकिया पूरी हो जाती है तो सुख पूरा होता है। इसी प्रकार सृष्टि में व्याप्त संपूर्ण रति इच्छा का जो चरमोत्कर्ष है, जो हरगौरी का सामरस्य या सिद्धों का युगनद्ध रूप है, वह अर्द्धनारीश्वर का रूप ही संपूर्ण सुख है। इसी प्रकार यह रति सुख पूर्ण एवं अंश के भेद से भिन्न है। फिर भी मूलतः यह पूर्ण सुख का ही भाग है।
6. पर्यायेऽपि समानता
     रति शब्द के विविध पर्यायों (विविध पर्यायवाची शब्दों एवं अर्थों) में भी (कुछ न कुुछ) समानता होती है ।
       जैसा कि पहले कहा गया है रति शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों मंे होता है। फिर भी उन विभिन्न अर्थों में भी समानता होती है। वह समानता कभी पूर्ण या कभी अंश के संदर्भ में होती है। कभी कभी सुख की थोड़ी या अधिक अनुभूति रूपी अर्थ की समानता अवश्य होती है। नर-मादा का आकर्षण या महासुख सभी अर्थों में रति शब्द का प्रयोग होता है। इसी प्रकार आकर्षण एकाग्रता आदि की प्रक्रिया में भी सुख की अनुभूति समान धर्म है।

7.रतिसुखस्य सर्वसुख-प्राधान्यं गुरूत्वम् च सर्वेन्द्रियसन्निवेशभोगसुखावसरसामर्थ्यात् ।
      रति सुख सभी सुखों में प्रधान एवं गौरवपूर्ण है क्योंकि इस सुख में सभी इन्द्रियों के द्वारा भोगे जानेवाले सुखों के एकत्र सन्निविष्ट होने का सामर्थ्य है ।
       रति सुख का महत्त्व सभी मानते हैं किंतु यह प्रश्न आम आदमी के सामने अनुत्तरित रहता है कि आखिर सभी सुखों के बाद भी रतिसुख के प्रति आदमी का इतना अधिक आकर्षण क्यों है ? सुख का भोग तो पाँचो इन्द्रियों के माध्यम से होता है और सुख के अनेक साधन भी संसार में हैं फिर भी विपरीत लिंगियांे के सम्मिलन सुख की प्रगाढता का कारण क्या है?
       इसी प्रश्न का उत्तर इस सूत्र में दिया गया है कि अन्य सुखेां मेें एक या दो इन्द्रियों के माध्यम से सुख प्राप्त होता है किंतु रतिसुख इसलिए सर्वाधिक गौरवशाली एवं प्रधान है क्योंकि रतिसुख की प्रक्रिया में युगलों (विपरित लिगियांे) की सभी इन्द्रियाँ अपना अवलंबन प्राप्त कर सकती हैं, उसमें संलग्न हो कर सुख का पूर्ण अवसर प्रदान कर सकती हैं।                                                                                                      
       दुर्भाग्यवश लेाग इस सहज प्रक्रिया पर ध्यान नहीं देते हैं और रतिसुख का आंशिक भोग ही कर पाते हैं। यदि निम्न प्रकार से इन्द्रियों का संयोजन हो तो कोई कारण नहीं है कि रतिसुख में इस संसार का सर्वाधिक सुख प्राप्त न हो-
       भोक्ता -विपरीत लिंगी स्त्री एवं पुरूष      
       आलंबन -अपने अपने सहभागी , परस्पर , उभयपक्ष एवं
       परिवेश ।
       प्रक्रिया - आकर्षण, मिलन एवं सुख भोगकी ।
       आलंबन - आँख से रूप का आलंबन , नासिका से सुगंध,
    जीभ से रसानुभूति, आनन्देन्द्रिय-नाडियों में होनेवाला प्रवाह, लिंग एवं योनि, मन (  इसे भी कुछ लोग इन्द्रिय मानते हैं )- स्वीकृति एवं अहंकार का विसर्जन । सभी दुखों से उस समय तक विस्मृति, मुक्ति । परिणामतः अपूर्व आनन्द की अनुभूति ।
      यदि किसी युगल को दुर्याेग से सभी इद्रियों से एक ही आलंबन में सुख का अवसर प्राप्त नहीं होता हो, वह किसी भ्रम, कुंठा या विपरीत स्थिति से ग्रस्त हो तो इसका कारण यह कहा जा सकता है कि उसे रतिसुख का वैसा विशेष सामर्थ्य नहीं है। इसी प्रचंड सामर्थ्य के कारण तो अन्य सुखों के भोग के बाद भी रंितसुख का आकर्षण भोगी के मन में प्रबल रहता है। इसके खंडित होने एवं उससे उत्पन्न अन्य समस्याओें तथा उनके समाधन की ही विस्तृत चर्चा इस पुस्तक में आगे की गयी है।

8. रति-ब्रह्मचर्ययोः सापेक्षत्वम् ।
   रति एवं ब्रह्मचर्य दोनों (परस्पर) सापेक्ष हैैं ।
      रति के बिना न तो ब्रह्मचर्य  अैार न ब्रह्मचर्य के बिना रति । दोनो सापेक्ष हैं । एक के बिना दूसरे का अस्तित्व ही संभव नहीं है। जो लोग ब्रह्मचर्य का अर्थ सभी विपरीत लिंगियों के प्रति आकर्षण मात्र से निवृत्ति या निषेध मानते हैं उनके लिए भी ब्रह्मचर्य हेतु रति आवश्यक है। मृत, नपुंसक या अशक्त को ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारिणी नहीं कहा जा सकता ।

9. भावाभावमुखेन द्विविधम्
     भावात्मक एवं अभावात्मक दृष्टि से ब्रहमचर्य दो प्रकार का होता  है फिर भी (ब्रह्मचर्य साधना की) विविध शैलियों के भेदों के आधार पर (यह) अनेक प्रकार का है।
       ब्रह्मचारी शब्द का प्रयोग शास्त्र एवं समाज में दो प्रकार होता है। भावात्मक एवं अभावात्मक । इस मुख्य विभाग के बाद भी ब्रह्मचर्य की साधना-प्रणाली के भेद से ब्रह्मचर्य को नाना प्रकार से निरूपित किया जाता है। इसका वर्णन आगे किया जा रहा है।

10. दारागारापरिग्रहत्वात् निरोधपथे अभावदृष्टिः।    
     पत्नी एवं घर के परित्याग के आधार पर निरोधमार्ग की दृष्टि अभावात्मक किंतु आगम की दृष्टि भावात्मक है।
        ब्रह्म की चर्चा ब्रह्मचर्य है। जो लोग स्त्री एवं गृहस्थी को ब्रह्मचर्य में विध्न मानते हैं उन्होने इनके परित्याग को ब्रह्मचर्य नाम  दे दिया है। जिनकेे लिए साधना प्र्रधान है वे स्त्री केा विक्षेप न मानकर सहयोगी मानते हैं। जो लोग ब्रह्मचर्य को अभावात्मक समझते हैं वे निरेाध का अभ्यास करतेे हैं। धर में निरेाध का अभ्यास प्रारंभ करने से जो साधना शुरू होती है वह घर एवं पत्नी के परित्याग में परिपूर्ण होती है। साधना के अनिवार्य घटक के रूप में गृह एवं पत्नी का त्याग एवं निषेध अनिवार्य होता है।
       इससे भिन्न आगम में भावात्मक दृष्टि होती है। आगम अर्थात् तंत्र की साधना में पत्नी एवं घर को छोड़ने की अनिवार्यता नहीं होती है। बल्कि तंत्र में कहीं कहीं स्त्री का सहयोग अनिवार्य भी माना जाता है। वाममार्गी साधकों मेें स्त्री-पुरूष का सबंध  तो होता है किंतु स्खलन नहीं होने दिया जाता है। कामसुख कोे विविध चक्रों मेें      ऊर्ध्वगामी  बनाया जाता है। सामान्य गृहस्थ अपनी पत्नी के प्रति कामानुराग एवं अन्य के प्रति विरागपूर्वक ब्रह्म की उपासना का अभ्यास करते रहतंे है। इस आधार पर प्रवृत्ति मार्ग एवं निवृत्ति मार्ग का भी नामकरण होता है।  

11. सेन्द्रियेन्द्रियोत्तरभेदेन रतिर्द्विविधा ।
    इन्द्रियसहगत एवं इन्द्रियोत्तर भेद से रति दो प्रकार की होती है ।
       सामान्यतः रतिक्रिया एवं सुखानुभूति इन्द्रयों के द्वारा होती है। संासारिक रति केवल सेन्द्रिय है। चाहे वह दक्षिणमार्गी गृहस्थेंा की रति हो या वाममार्गी साधकांे की। वस्तुतः जब कोई साधक अपनी मानसिक शक्ति द्वारा अपने भीतर की इडा-पिंगला को साम्यावस्था में लाकर मूलाधार से रतिसुख को ऊपरी चक्रों में भेजता है तो वह इन्द्रियोत्तर अर्थात् सेन्द्रिय रति से मुक्त होता है। प्रकृति में व्यापक रूप में स्थित विपरीत लिंगियेां की रति इसी प्रकार की सेन्द्रिय होती है। अन्य की मैथुन या रति दो प्रकार की समझी जा सकती है या देखी जा सकती है।
 
12. प्रत्यक्ष एवात्र प्रमाणं रतेर्नैसर्गिकत्वात् ।
     रति के नैसर्गिक होने के कारण इसके प्रस› में प्रत्यक्ष ही प्रमाण है ।
     चूँकि रति एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जो विभिन्न रूपों में विभिन्न स्तरों पर व्याप्त होती है। इसकी स्थिति एवं स्वरूप का प्रमाण प्रत्यक्ष ही है। इसे तर्क से सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि किसी को किसी भी अवस्था या स्वरूप का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता हंो तो वह उस व्यक्ति के अवयवों या प्रक्रिया का दोष है क्योंकि दूसरे को रति के उसी स्वरूप का अनुभव हो जाता है। कोई भी व्यक्ति अपने दोषंेा को दूर कर प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है।

13. तत्प्रत्यक्षमपि लौकिकयोगजभेदेन द्विविधम् ।
     वह प्रत्यक्ष भी लौकिक और योगज भेद से दोप्रकार का होता है उसी प्रकार लौकिक एवं योगज भेद से रति साक्षात्कार भी दो प्रकार का होता है।
        प्रत्यक्ष दो प्रकार का शास्त्रो में माना गया है। 1-लौकिक जो पाँच ज्ञानिन्द्रियांे द्वारा होता है। 2-योगज जो साधक योगसाधना द्वारा बिना इन्द्रियों के सहयोग से अनुभव करता है । इसी प्रकार रति-साक्षात्कार भी दो प्रकार का होता है। लौकिक एवं योगज। लौकिक रति-साक्षात्कार निम्न रूप में होते हैं। (क) एक या एक से अधिक इन्द्रियों का विपरीत लिंगी रूपी आलंबन के साथ भौतिक संयोग। (ख) स्वप्न या दिवास्वप्न में आलंबन का स्मृति रूपी संयोग। स्मृति से भी उत्तेजना आदि प्रक्रियाए हो जाती हैं। स्वप्न में तो पूरी सृष्टि ही मनेानुरूप हो जाती है। (ग) कभी कभी उपर्युक्त क्रिया मानसिक आलंबन के न रहने पर भी रज वीर्य का अत्यधिक संचय हो जाने ,पेट में गरमी होने या जननेन्द्रियांे का किसी पदार्थ से घर्षण होने पर भी रति का अनुभव होता है। इसी को स्वप्नदोष कहा जाता है।योगज रति साक्षात्कार योग-तंत्र साधना की विविध क्रियाओं द्वारा होता है। यह साधना भी मार्गभेद से अनेक प्रकार की दीखती है किंतु तत्त्वतः एक ही प्रकार की होती है। इसमें स्खलन को रोककर अनुभवको व्यापक गहरा एवं दीर्घकालीन बनाकर मस्तिष्क के केन्द्र (सहत्रद) मंे स्थिर करने का अभ्यास एवं विविध स्त्तरों पर गहन से गहनतर सुख का साक्षात्कार किया जाता है।

14. लौकिकं स्त्रीपुरुषेन्द्रियसंयोगात् स्वप्ने वा दिवास्वप्ने वा स्मृत्युपस्थानात् ।
     लौकिक (रति सुख का साक्षात्कार) स्त्री एवं पुरूष के इन्द्रियों के संयोेग से या स्वप्न अथवा दिवास्वप्न में स्मृति  के उपस्थित होने से होता है। इसके अतिरिक्त रज या वीर्य के अति संचित हो जाने या जननेन्द्रिय का किसी भी पदार्थ से संघर्ष से भी हो जाता है ।
    चूँकि इस पुस्तक का मूल प्रतिपाद्य रति-सुख का उदात्तीकरण एवं चरमानुभूति का मार्ग एवं प्रक्रिया है न कि उत्तेजना। अतः यहाँ रतिक्रिया की विविधता का विवेचन नहीं किया जा रहा है।

15. योगजम् ध्यान-प्राणायाम-मुद्रा-बंधाभ्यासमुखेन समग्रजेनैकेन वा चक्रसंचलनात् ।
     योगज रति साक्षात्कार ध्यान, प्राणायाम, मुद्रा एवं बंध के अभ्यास के द्वारा संपूर्ण या किसी एक चक्र के चलायमान  होने के कारण होता है ।     योगज रतिसाक्षात्कार के लिए यौगिक प्रक्रिया की आवश्यकता होती है। इसके लिए मुख्यतः ध्यान, प्राणायाम, मुद्रा एवं बंध का अभ्यास करना पडता  है। इस अभ्यास द्वारा जब केवल एक अर्थात् मूलाधार चक्र गतिशील हो जाता है या अन्य चक्र भी गतिशील हो जाते हैं तो क्रमशः सघन से सघनतम रति-साक्षात्कार होता है। इसमें चॅंूकि विपरीत लिंगी की शारिरिक या मानसिक अपेक्षा अनिवार्य नहीं होती, न ही हस्तमैथुन की तरह किसी बाह्य इन्द्रिय का घर्षण आवश्यक होता है अपितु मानसिक अभ्यास ही प्रघान होता है अतः यह योगज रतिसाक्षात्कार है।
       मूलाधार चक्र मे स्फुरण एवं गति तो प्राथमिक अवस्था है। इसे कामानन्द कहा गया है। सहजानन्द तक उसी सुख के विकास के लिए अन्य चक्रंो की शुद्धि एवं सहयेाग  अवश्य होता है।  मूलाधार आदि चूँकि मानव के विविध चेतनास्तरेंा से जुडे रहते हैं अतः रतिसाक्षात्कार के स्तर भेद में इन चक्रांे का विविध रूप में महत्त्वपूर्ण योगदान होता हैं। इन चक्रांे की भूमिका तथा योगदान प्रत्यक्ष में तो अनिवार्य होता ही है वे लौकिक रति-साक्षात्कार में भी चक्रांे की सहभागिता रहती है।  मानव शरीर में ही चक्र रहते हैं अतः अपनी दशा के अनुसार वे अनुकूल एवं प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। उदाहरणार्थ अस्वस्थ मणिपुर चक्रवाला व्यक्ति प्रेम की स्वीकृति में भी घबराने लगेगा । अस्वस्थ स्वाधिष्ठानवाला व्यक्ति अपने साथी पर सदैव आशंका ग्रस्त रहेगा । इसी प्रकार अन्य बातों का निरूपण प्रश्नानुसार आगे किया जाएगा ।

16. रतिभं्रशो दोषः, तृप्तिः मुक्तिः ।
    रति साक्षात्कार की प्रक्रिया का बीच में टूटना स्वतः दोष है । तृप्ति ही मुक्ति है ।
         रति प्रक्रिया का अचानक टूटना ही दोष है। गहरी आनन्दानुभूति तक न पहुँचने से मन के संकल्प से लेकर शारीरिक अवयवों तक को प्राकृतिक नियमों के प्रतिकूल आचरण करना पड़ता है। मानव स्वभाववश पुनः अधिक वेग से उसी आनन्दानुभूति का प्रयास करता है । साथ ही इस भ्रंश के कारण पीडा भी होती है इसलिए रति भ्रंश को रति प्रक्रिया का दोष माना गया है। इसके विपरीत यदि प्रक्रिया पूरी हो जाती है और व्यक्ति तृप्ति का अनुभव करता  है तो उसे आनंदानुभूति तो होती ही है यह आनन्दानुभूति गहरी तृप्ति भी देती है। यह तृप्ति जितनी गहरी ओैर व्यापक होती जाती है बंधनों से मुक्ति  होती जाती है और जब साधक या साधिका सृष्टि के युगलभाव का अपने भीतर साक्षात्कार करते है, उनकी तृप्ति पराकाष्ठा की ओर जाती है। यहाँ मुक्ति  शब्द का सामान्य अर्थ बंधनों, उद्वेगो एवं पीड़ाआंें से मुक्ति है। इसके बाद साधक, साधिका की स्वेच्छा पर है कि वह रतिक्रिया में प्रजनन आदि कार्यों के  लिए प्रवृत्त हो या न हो। नित्य तृप्त शिव  को भी संतान-प्राप्ति के लिए कामक्रीडा तो करनी ही पड़ी थी । मानव की संतान-वासना प्रवल है इसके लिए वह दूसरेंा के बच्चों को भी अपनाने का प्रयास करता है।

17. तज्जन्यं विक्षेपावृत्तिदुश्चक्रं दुःखम् । तदेव बंधनम् ।
     इसके कारण विपेक्ष एवं रतिक्रिया की आवृत्ति का दुश्चक्र चलने लगता है। यही दुःख एवं बंधन है ।
       उससे अर्थात् रतिभ्रंश से विक्षेप होता है, ऊर्जा की दिशाएँ जो विविध इन्द्रियों से अपने आलंबनों की अेार गतिशील रहती हैं दिगभ्रमित हो जाती हैं और पुनः वेगपूर्वक आलंबनांे की ओर अग्रसर होती हैं यह  अतिवेग भी प्रायः रति-प्रक्रिया को पूरा होने नहीं देता है परिणामतः पुनः वेग से प्रवृत्ति होती है और कई आलंबनों मंे भ्रंश हो जाता है। उदाहरणार्थ शीघ्रस्खलन के वेग में सौन्दर्य, स्पशर्, स्वीकृति, शांति, दीर्घकालिकता का सुखवाला भाग छूट जाता है। मन की बेचैनी बढती है । इस प्रकार से व्यक्ति एक दुःश्चक्र एवं मानसिक ग्रंथि का शिकार हो जाता है। यही बंधन है अैार दुःख-रूपी है। इससे निकलने का वेगपूर्ण हर प्रयास विफलता मंे परिणत होता है। इस विषय को भलीभाँति समझना चाहिए। इसका तात्त्पर्य यह नहीं है कि व्यक्ति स्खलन तक पहुँचा या नहीं बल्कि वह उत्तेजना से प्रारंभ कर विविध आलंबनों मंे विविध इन्द्रियांे को संलग्र करता हुआ उभय पक्ष की मानसिक स्वीकृति मंे संपूर्ण कल्पना-जाल रूपी विकल्प वृत्ति से सहज मुक्त होता हुआ स्खलन के समय प्राणापान संचालन की गतिविधियंांे से भी मुक्त होकर स्खलन कालीन चरम सुख की अनुभूति कर निढाल हुआ या नहीं। सामान्य स्तर के रति-साक्षात्कार में भी युगल इतने गहरे भर जाते हैं कि उस सुख की मादकता से देर तक मस्त रहते हैं, जो उन्हे गहरे प्रेम की ओर अग्रसर करता है।

 18.पूर्णरतौ लौकिकयोगजादिपूर्णायां  पूर्णानंद-पथोद्दीपनम्।
      लौकिक एवं योगज आदि से प्रकिया  की पूर्णता के बाद जो पूर्ण रति साक्षात्कार होता है ंउससे आनन्द का पथ उद्दीप्त हो जाता है ।
       पहले रति-भ्रंश की चर्चा की गयी । इसी प्रकार पूर्ण रति को भी समझ लेना चाहिए। जैसे रति साक्षात्कार दो प्रकार का होता है उसी प्रकार रति की पूर्णता को लौकिक एवं योगज दो दृष्टियों से समझना चाहिए ।
सांसारिक स्तर पर रति की पूर्णता से तृप्ति एवं प्रेम का विकास होता है । इसके साथ-साथ यदि यह प्रक्रिया लौकिक के साथ योगज स्तर पर भी पूरी हो जाय तो आनंद का पथ उद्दीप्त हो जाता है ।
युगल परस्परावलंबन में एकाग्र, संतृप्त एवं समाहित होते हैं, जैसे ही उनकी बेचैनी दूर होती है सुषुम्ना-पथ स्वयं उद्दीप्त हो जाता है यही भोग एवं मुक्ति दोनों के एकत्र उपलब्धि का रहस्य है ।  ‘घेरंड संहिता‘ में इसी बात को निम्नरूप में कहा गया है कि
      ‘चित्ते समत्वमापन्ने वायुः ब्रजति मध्यमे।
       तदामरोली बज्रोली सहजोली प्रजायते।।‘
चित्त जब समत्त्वभाव में आता है तब वायु मध्यम (सुषुम्ना) में प्रवेश करती है। उस समय हठयोग में वर्णित स्खलनकालीन उत्तेजना एवं रजवीर्य को ऊपर के चक्रों में भेजनेवाली अमरोली, एवं सहजोली की क्रियाएँ / अवस्थाएँ (स्वतः) उत्पन्न हो जाती हैं। इसका विस्तृत विवेचन आगे (पृ0.......पर) किया गया है।
हठयोग या तंत्र की विविध प्रक्रियाओं के द्वारा पहले साम्यावस्था को प्राप्त किया जाता है। हठयोग में प्रयासपूर्वक ऊर्ध्वारोहण होता है जबकि तृप्तिमार्ग में रति की पूर्णता होने पर स्वतः आनंदपथ उद्दीप्त हो जाता है। इस अवस्था में स्खलन करना न करना साधक/साधिका की स्वेच्छा पर निर्भर करता है ।
ध्यानयोग के अभ्यास में स्खलन होता ही नहीं है क्योंकि आज्ञाचक्र के  द्वारा प्रक्रिया प्रारंभ होने के कारण या तो साधक का उस पर भीतरी नियंत्रण बना रहता है अथवा नियंत्रण छूटते ही उत्तेजना शांत हो जाती है।
यह घटना मूलाधार चक्र मेें होती है, जिसके प्रभाव से न केवल जननागों एवं उनके आस-पास के क्षेत्र बल्कि पूरा शरीर ही अप्रतिम आनंद से भर जाता है । यह अवस्था भी केवल अनुभूति-गम्य है, शब्दों में इसका सही वर्णन नहीं किया जा सकता है । सामान्यतः लोग पूर्णरति के अनुभव का सामर्थ्य नहीं रखते अतः अचानक इस अवस्था तक पहुँचना सबके वश में नहीं है । उसके पहले प्रक्रिया के भ्रंश आदि दोषों को दूर करना एवं रति के अनुभव को उदात्त करने की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है, जिसकी चर्चा आगे हो रही है ।
19. रतिशुद्धि-रत्युदात्तीकरणाभ्याम् ऊर्ध्वारोहणम्, प्रेमविकासः, ऊर्जासंचयः, विक्षेपनिरशनम् ।
     रति की शुद्धि एवं उदात्तीकरण इन दोनों के द्वारा ऊर्ध्वारोहण, प्रेम का विकास एवं ऊर्जा का संचय होता है तथा विक्षेप निरस्त होते हैं ।
     रति शुद्धि एवं रति उदात्तीकरण के द्वारा व्यक्ति चेतना, भावना एवं अनुभूति के उच्च स्तर की ओर अग्रसर होता है। उसमें प्रेम का विकास होता है। उसकी ऊर्जा की क्षति रुद्ध होकर संकुचित होने लगती है और रतिसाक्षात्कार केे सभी विघ्न समाप्त हो जाते हैं। रतिशुद्धि एवं रतिउदात्तीकरण ये दो प्रक्रियाएँ हैं । रतिशुद्धि का अर्थ हुआ कि  इन्द्रियों एवं आलंबनों का ठीक से विनियोग - जैसे पाँचों इन्दियों एवं आलंबन के बीच के अवरोध को हटाना, जैसे किसी युगल के मुख से दुर्गंध आता हो तो यह अशुद्धि है । मन नहीं मिलता हो, शरीरिक रचना अनुकूल नहीं हो, उभय पक्ष की सहमति न हो, मिलन का स्थान निर्विघ्न न हो, प्रक्रिया का सही ज्ञान न हो इत्यादि की कल्पना की जा सकती है । इसकी शुद्धि ही रतिशुद्धि है ।
रति के उदात्तीकरण का तात्पर्य यह है कि जैसे युगल अपने मिलन में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं वैसे ही अन्य के मिलन से  भी सुखी हांे, आकर्षण की दीर्घकालिकता गहरे प्रेम या कला में परिणत हो जाय, मूलाधार से चेतना आन्नदाकाराकारित होकर ब्रह्मानन्द तक पहुँच जाए आदि । कोई भी विक्षिप्त या कुण्ठित व्यक्ति प्रेमपूर्ण नहीं हो सकता और प्रेमी को कुंठा नहीं होती अन्यथा आडंबर मानना चाहिए । इसकी प्रकिया की चर्चा आगे की जायेगी ।

 20.  वस्तुतःऊर्जाक्षयस्यैव निरोधापेक्षा नेन्द्रियविषयसम्मेलनादिनाम्।
        वस्तुतः ऊर्जाक्षय को रोकने की आवश्यकता है न कि इन्द्रिय एवं विषय के सम्मिलन को रोकने की ।
       बाहरी तौर पर भावात्मक या अभावात्मक दृष्टि का अंतर दृष्टिगत होता है किंतु दोनों में एक बात सामान्य है कि कोई भी  
 मार्ग व्यर्थ ऊर्जा का क्षय करना नहीं चाहता।  स्खलन के समय ऊर्जा का क्षय हो जाता है। इससे खिन्नता होती है। इसी खिन्नता के कारण व्यक्ति पुनः आनंदावस्था तक पहुँचना चाहता है। लोगों ने पूर्व में इस समस्या का समाधान यह सोचा कि उत्तेजना से चरम आनंद तक की अवस्था तो प्राप्त हो ंिकंतु खिन्नता न हो, उर्जा का क्षय न हो।
       जो पूर्णतः निरोध मार्गी है वे आरंभ से अंत तक रतिप्रक्रिया का ही निषेध करते हैं। स्त्री पुरूष का एक दूसरे को सपने में भी देखना पाप है। पति-पत्नी को भी संतानोत्पत्ति के निमित्त यंत्रवत् मिलना चाहिए, शेष समय भाई-बहन की तरह बिताना चाहिए वगैरह वगैरह। इन्होनें संपूर्ण मिथुन भाव का ही विरोध किया है। पूर्ण निवृत्त वह है, जिसकी दृष्टि में स्त्री एवं पुरूष में कोई अंतर ही नहीं है फिर परस्पर आकर्षण का प्रश्न ही नहीं उठेगा।
    स्त्री-पुरूष का संसर्ग बंद करने पर भी यदि मानसिक संस्कारवश स्वप्नदोष आदि की घटनाएँं घटती हैं तो स्खलन होता है, ऊर्जा का क्षय होता है। अतः इस प्रकार के क्षययुक्त निरोध की कोई सार्थकता वास्तविक साधक नहीं मानते। ऐसा निरोध आडंबर मात्र है।
       इससे  भिन्न  मिश्रमार्ग  या वाममार्ग  में  स्त्री-पुरूष के आकर्षण  से संभोग  (सम्-ठीक प्रकार से $ भोग-परस्पर को आलंबन मानकर भोग) तक की प्रक्रिया स्वीकृत है, गृहस्थ मिश्र-मार्गी होते हैं। विरक्त वीराचार का पालन करते हैं या अन्य साधनाएँ करते हैैं।
      साधना चाहे जो भी हो अंततः इसी बातपर ध्यान दिया जाता है कि स्खलन न हो, जिससे ऊर्जा का क्षय न हो । संभोग होने पर भी यदि स्खलन न हो तो व्यक्ति  में अद्भुत सामर्थ्य विकसित होने लगता है। सामान्य स्तर का नियंत्रण भी बहुआयामी लाभ देता है। फिर भी नियंत्रण दमन नहीं है अतः नियंत्रण की वास्तविक शिक्षा एवं अभ्यास की आवश्यकता है ।
       इन्द्रिय एवं विषय का सम्मेलन तो वैसे भी अनेक रिश्तांे में होता है। अतः वास्तविक अपेक्षा ऊर्जा के क्षय के निरोध की ही है।                      

 21.जननेन्द्रियबज्रनाड़ीमूलाधारमूलबंधरजवीर्योत्सर्गावयवानामंाकंुचनप्रसारणोद्दीपन- घर्षणसंघट्ट-स्मृतिलयक्लान्ति-पुनराकर्षणादिनांप्राधान्येन पंचज्ञानेन्द्रियद्वारेण सहभागित्वम् ।
 रतिसाक्षात्कार में मुख्य रूप से निम्न भाग- जननेन्द्रिय, वज्रनाड़ी (स्त्रियों में......) मूलबंध, मूलाधार-रजवीर्य को बाहर निकलनेवाले अवयवों के आकंुचन, प्रसारण, उद्दीपन, घर्षण, संघट्ट, स्मृतिलय, क्लान्ति एवं पुनराकर्षण के माध्यम से मुख्य रूप से सहयोगी होते हैं ।
        यह रतिक्रिया है क्या ? इस विषय को ठीक से न समझने के कारण समस्याएँ खड़ी होती हैं । पँाच ज्ञानेन्द्रियों एवं मन के एकत्र आलंबन की चर्चा पहले की गयी है ।
 इस प्रक्रिया के कुछ कम चर्चित घटकों का इस सूत्र में उल्लेख किया गया है । उभयपक्ष के जननेन्द्रियों में संवेदना (उत्तेजनारूपी)  घनीभूत होने पर बज्रनाड़ी मंे प्रवेश कर जाती है । बज्रनाड़ी से सुषुम्ना तक के छोटे मार्गों में स्खलनकालीन आनंद का अनुभव होता है। यही मूलाधार चक्र की भावात्मक या अनुभावात्मक स्थिति है, इसे जननांगप्रदेश के आस-पास माना गया है।
       प्रायः इसे गुदा मार्ग एवं मूत्रमार्ग के बीच माना जाता है । इस मार्ग को आकुंचित करने की प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से भी होती रहती है । साथ ही अपनी मर्जी से भी  इसे आकुंचित करने का प्रयास किया जाता है । इस प्रक्रिया को ‘मूलबंध’ कहते हैं। इसी प्रकार से रज एवं वीर्य को छोड़नेवाले अवयवों में भी आकुंचन प्रसारण की क्रिया होती रहती है।
सामान्यतः उद्दीपन के साथ-साथ आकुंचन-प्रसारण, फैलना सिकुड़ना प्रारंभ हो जाता है। इसके बाद जननांगों में घर्षण होने पर संघटृ अर्थात् सघन एकाग्रता बनती है । युगल तन्मय हो जाते हैं। तदुपरांत पूर्व स्मृतियाँ संधट्ट में भी लीन हो जाती हंेै। आनंदानुभूति चरम पर पहँुचती है उसके बाद स्खलन के कारण थकान हो जाती है। कुछ देर बाद फिर आकर्षण बढ़ने लगता है, यह आकर्षण पाँच इन्द्रियों के माध्यम से बढ़ता हुआ पुनः उसी अवस्था तक पहुँचता  है। यह लौकिक पूर्ण रति का स्वरूप हुआ। इसमें यदि कोई कमी हो तो समझना चाहिए कि दोष है।

22. एतत्प्रक्रियाज्ञानात् प्राथमिकी शांतिः ।
        इस प्रक्रिया के ज्ञान से प्राथमिक स्तर की शांति हो जाती है ।
       इस प्रक्रिया के ज्ञान से प्राथमिक शांति मिल जाती है । दुर्योग से बहुत सारे लोग इस प्रक्रिया को जानते ही नहीं हैं वे अपने साथी में पाँचों इन्द्रियों एवं मन का लय नहीं कर पाते । कोई मूर्ख तो हार जीत की भावना से ही ग्रस्त होकर रतिभ्रंश का शिकार हो जाता है । कुछ लोग सफाई का ध्यान नहीं रखते । दुर्गंध सबसे बड़ा बाधक होता है । बलात्कारी तो सदैव पीडि़त रहता ही है ं। धोखाधड़ी सम्मोहन आदि से भी प्रकिया बीच में टूट जाती है। स्वीकृति ही मानसिक समरसता पैदा कर सकती है। बेमेल विवाहांे में यह प्रकिया प्रायः खंडित हो जाती है । हड़बड़ी, शीघ्र-स्खलन का भय पति, या पत्नी की तृप्ति की कमी आदि से भी यह प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती। अतः इस प्रक्रिया को ठीक से समझ लेने से प्राथमिक स्तर की शांति हो जाती है । सबसे हास्य की बात यह है कि उमयपक्षीय कृत्य को कुछ लोग पुरूष या स्त्री  की प्रधानता की दृष्टि से सोचकर धन, बल के बीच आकर्षण, मजबूरी या किसी कारण से  युगल-विवाह में बंधन में बंधकर चिरकालीन दुखः को आमंत्रित कर लेते हैं । पाँचों इन्द्रियों के साथ मन के एकालंबन में लीन होने के सूत्र को सदैव ध्यान में रखना चाहिए। यहाँ केवल आधरभूत सिद्धातों की चर्चा की गयी है। उपायों की चर्चा उद्धार-साधन-खंड होगी ।

 23. तदुत्तरा प्रक्रियासाक्षात्कारात् ।
      उससे उच्चस्तरीय शांति प्रकिया के साक्षात्कार से होती है।
     उससे उत्तर अर्थात् बाद वाली कुछ और गहरी शांति इस प्रकिया के साक्षात् अनुभव से होगी । सैद्धांतिक ज्ञानसे अनावश्यक तर्क-वितर्क तो शांत हो जाते हैं किंतु व्यक्ति अनुभव के बिना विश्वस्त एवं निश्चिंत नहीं हो पाता है ।
24. सुपरिचयाधिपत्याच्च सिद्धिः ।
        सुपरिचय एवं इस प्रकिया पर पूर्ण स्वामित्व/नियंत्रण, से सिद्धि होती है ।
        इस प्रक्रिया से बार-बार गुजरने पर पूरी प्रक्रिया से व्यक्ति सुपरिचित हो जाता है। सुपरिचय के बाद उसका आत्मविश्वास दृढ़ होता है और अपनी मर्जीे से भी वह रतिसाक्षात्कार को हर स्तर पर नियंत्रित करने में समर्थ होता है ।
जब व्यक्ति अपनी उत्तेजना एवं संवेग को अपने नियंत्रण में कर लेता है तो इस प्रक्रिया का ही स्वामी बन जाता है । इस सुपरिचय से संवेग को स्थानांतरित करने की संभावनाओं का ज्ञान होता है और स्वामित्व के बल से वह ऊर्जा को अपेक्षित दिशा मंे भेजने में सक्षम होता है, जिससे अनेक प्रकार की सिद्धियाँ होती हैं कम से कम रति-प्रक्रिया की सिद्धि तो उसे हो ही जाती है ।

25. तत्सिद्धये यत्नो विधेयः ।
        उसकी सिद्धि के लिये यत्न करना चाहिए ।
        इस सिद्धि के लिए प्रयत्न करना चाहिए । चूँकि सिद्धि की संभावना है इसीलिए यत्न करना चाहिए। इससे लाभ ही लाभ हैं।

26. शास्त्रगुरूसेवनाच्च सौकर्यमन्यथेश्वरकृपयाच ।
       शास्त्र एवं सदगुरू की सेवा से आसानी होती है अन्यथा ईश्वर की कृपा से ही संभव है ।
        यत्न में मानव का अधिकार है। प्रयास से मार्ग एवं सफलता मिलती है, इसका आशय यह नहीें है कि यत्न न करनेपर सफलता स्वतः प्राप्त हो जाती है। इसे ईश्वर की कृपा समझना चाहिए । सफलता भले ही स्वतः प्राप्त हो जाय फिर भी मूल प्रक्रिया एक ही रहती है। योगज साक्षात्कार में पंचेन्द्रियों का लय तो होता है किंतु यह लय उन-उन इन्द्र्रियों के मूल स्थान अर्थात् शरीर में ही हो जाता है । दूसरे के शरीर की अपेक्षा नहीं होती । योगसिद्धि सदाचारी को स्वतः हो जाती है। उस समय मूलाधार संबंधी अनुभव से योगी का परिचय हो जाता है भले ही उसने किसी स्त्री या पुरूष को छुआ तक न हो । स्त्री के विषय में मतभेद है, जिसकी चर्चा अन्यत्र होगीे ।
 शास्त्र एवं सद्गुरू की सेवा करने से प्रक्रिया का ज्ञान सरलता से हो जाता है । इसी अर्थ में शास्त्र एवं गुरू का महत्त्व है । जो गुरू इस विषय की चर्चा या निर्देशन से भागते हों उन्हे वस्तुतः योग या तंत्र किसी भी परंपरा का ज्ञान नहीं है । वे केवल शब्द रटने वाले लोग हैं । कोई भी माता-पिता अपने संतान के प्रजनन कृत्य को बुरा नहीं मानते । संतानसुख, विवाहसुख सभी भारतीय समाज में स्वीकृत हैं । ये धर्म एवं काम दोनों पुरुषार्थांे की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं ।

 27. मार्गाणा नानात्वम्, ध्यान-प्राणायामचक्र-मंडलादिनां विधानम् ।
        इसके लिये मार्ग अनेक हैं । इसके लिये ध्यान, प्राणायाम, चक्र, मंडल आदि का विधान किया गया है ।
        यह संसार विविधताओं से भरा हुआ है । इसीलिए अनेक मार्ग भी विकसित हुए हैं । किसी भी मार्ग को सहसा सबके लिए सही या गलत नहीं कहा जा सकता । इसके लिए ध्यान, प्राणायाम, चक्र,  मंडल आदि का विधान किया गया है । इसके स्वरूप एवं उपयोग की चर्चा विस्तार से उद्धार-साधन-खंड में की गयी है ।

28. योगेश्वरकृष्णयोगीश्वरशिवयोश्चागमे कृपा ।
          आगम पर योगेश्वर कृष्ण एवं योगीश्वर शिव दोनांे की अत्यंत कृपा है ।
       कृष्ण एवं शिव दोनों योग मार्ग के परमज्ञाता हैं ं। कृष्ण को योगेश्वर तथा शिव को योगीश्वर कहा गया है । इन दोनों ने  विविध उपायों को अपने विचार एवं आचार द्वारा प्रगट किया है। आगम अर्थात् तंत्र शास्त्र पर इन दोनों की महान कृपा है ।

29. बज्रपद्मादिसेवनम् बौद्धागमे ।
         बज्र्र, पद्म आदि के सेवन का निर्देश बौद्ध आगमों (तंत्र) में  है ।
        तंत्र की विधियाँ अनेक परंपराओं में विविध रूप में स्वीकृत हैं। बौद्ध तंत्र परंपरा में रतिसिद्धि हेतु बज्र, एवं पद्म आदि के सेवन का विधान है। ब्रज एवं पद्म पारिभाषिक पद हैं, जिनके कई अर्थ होते हैं। एक अर्थ के अनुसार बज्र अर्थात् लिंग, पद्म अर्थात् भग भी होता है। बज्र एक नाड़ी भी है, जो संवेगों के संग्रह का मुख्य आधार है। इस विषय पर विस्तृत वर्णन बौद्ध तंत्र परंपरा में प्राप्त होता है। मूल प्रकिया एक होने के कारण अलग से इसका विवेचन  नहीं किया गया है।      
       इसी प्रकार पांचरात्र आदि आगमों में भी प्रेम, विकास और रति के उदात्तीकरण की विधियाँ वर्णित हैं।

30.निरोध इति वेदंातयोगस्थविर-जैन-परंपरायाम्  ।
         वेदांत, योग, स्थविरवाद एवं जैन परंपरा में निरोध की बात कही गयी है ।
       निवृतिमार्गी अद्वैत वेदांती पातंजल योग मार्ग के समर्थक एवं बौद्ध परंपरा में थेरवादी तथा जैनी निरोध मार्ग के पक्षधर है। पातंजल योग, स्थविरवाद एवं जैन परंपरा का निरोध मार्ग तो स्पष्ट है किंतु तंत्र में योग के समावेश से योग को केवल निरोंध दृष्टिवाला नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार शंकराचार्य से लेकर बाद तक के शैव, शाक्त आदि संप्रदायों में तंत्र उपासना स्वीकृत होने से भक्तिमार्ग में युगल भाव की स्वीकृति एवं अन्य कारणों से वेदांत एवं योग परेपरा भी पूर्णतः निरोध दृष्टिवाली नहीं है ।

 31. प्रवृत्ति-निवृत्ति-तदुभयमिश्रभावकाश्चाधुनिकाः ।
         उसी प्रकार प्रवृत्ति निवृत्ति दोनों या दोनो के मिश्र मार्ग को मानने वाले आधुनिक विचारक या आचार्य हैं ।
       आधुनिक शास्त्रकार प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनांे के मिश्रण के पक्षधर हैं। वस्तुतः लोक जीवन में केवल प्रवृत्ति या केवल निवृत्ति हो नहीे पाती। यह केवल कल्पना लोक की बात है। हमारा मन यदि किसी आलंबन की ओर प्रवृत्त होता है तो उसी क्षण वह अन्य आलंबनों की ओर से निवृत्त हो जाता है। किसी एक आलंबन में एकाग्रता जितनी सघन होगी उतनी ही उस समय अधिक मात्रा में अन्य आलंबनांे से निवृत्ति हो जायेगी । इस प्रकार प्रवृत्ति के साथ-साथ निवृत्ति अनिर्वायतः होती है ।
 दूसरी तरफ जो निवृत्ति मार्ग का अभ्यास करते है उन्हें भी स्थूल सामग्री न सही सूक्ष्म का आलंबन करना ही पड़ता है ।
       अपनी प्रेमिका से जो प्रेमी गहन रूप में जुड़ता है ंउसे अन्य स्त्रियों के प्रति अनुराग का अवसर स्वतः कम हो जाता है । ठीक इसी प्रकार कोई दूसरी प्रेमी प्रेमिका यदि दूसरों के प्रति आसक्ति के    निषेध का अभ्यास करंे तब भी उनकी साधना तब तक सफल नहीं होगी जब तक वे अपने प्रेमी प्रेमिका के प्रति परस्पर गहन आसक्ति में डूबते न चले जायें ।
 इस रहस्य को समझने के बाद प्रवृत्ति की तात्त्विक बहस बेमानी है। प्रवृत्ति से गहनता आती है निवृत्ति से चंचलता दूर होती है। राजाओं के अंतःपुर में हजारों रानियाँ/पटरानियाँ केवल नाम मात्र के प्रतीकात्मक सबन्ध में ही बँध सकती हैं। 100 वर्ष की आयु भी रति-सुख की दृष्टि से इनके लिए कम है । यह एकपक्षीय है, हजारों के साथ हजारों के जुड़ने की बात आधुनिक यूरोप में मुक्ताचार के रूप में है लेकिन पश्चिम के लोग भी शांत नहींे हो पाये हैं, उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही है क्योंकि सफलता का सूत्र परिवर्तन की अनिवायर्ता में नहीं है । प्रवृत्ति का दमन जिस प्रकार हानिकारक है उसी प्रकार उद्वेग भी हानिकारक हैं। इसलिए उचित एवं अनुकूल स्थान में प्रवृत्ति एवं उससे भिन्न स्थान से निवृत्ति के सिद्धांत को मिश्रमार्गी लोगों ने अपनाया है । वर्तमान समय में  अधिसंख्यक लोग मिश्र मार्ग पर ही विश्वास रखते हैं ।
         आधुनिक हों या प्राचीन उभयपक्ष सहमति का सिद्धांत अनिवार्य समझा गया है। सहमति से भिन्न स्थान पर कोई भी व्यापार निषेधयोग्य है । सहमति के  स्वरूप पर भी समाज में काफी विवाद है। चूँकि विवाह संस्था के अंतर्गत केवल रतिसुख ही नहीं आता है अपितु उत्तराधिकार, संस्कृति आदि अनेक विषय जुड़े हुए हैं, अतः उन दृष्टियों से ही अधिक विचार हुए हैं, जिसके कारण अनेक प्रकार के प्रतीक विवाह विकसित हुए हैं, जिनका रति साक्षात्कार से कुछ लेना देना नहीं है। मीरा का कृष्ण के साथ विवाह दांपत्य लौकिक रति साक्षात्कार की दृष्टि से व्यर्थ है। मिथिला, बंगाल एवं राजस्थान की पुरानी कुलीन प्रथा, जिसमें एक पुरूष की पचासों पत्नियाँ हो सकती थीं, रतिसाक्षात्कार की दृष्टि से पागलपन मात्र है । इसी प्रकार मातृसत्तात्मक समाज के बेमेल विवाहों की भी कोई संगति नहीं बन पाती ।

32. शेषस्त्वाचार्यमुखेन ज्ञातब्यः पात्रभेदौचित्यात् ।
        पात्र-भेद के औचित्य की दृष्टि से बाकी  बातें आचार्य के मुख से जानी जानी चाहिये ।
       अत्यल्प भेद से मार्गों में भेद दिखाई देता है। पात्र एक दूसरे से भिन्न होते हैं। अतः हर व्यक्ति की अपनी परिस्थिति के अनुसार विधि अलग हो सकती है। मूलभ्ूात सिद्धांतों की चर्चा इस पुस्तक में की गयी हैं । किंतु व्यक्तिगत अभ्यास की विधि तो आचार्य के मुख से ही जानना श्रेयस्कर है ।
       जो व्यक्ति जीवन-साधना में होशपूर्वक लगे हैं उन्हें कुछ न कुछ समाधान मेरे प्रयास से मिलेगा, यह आशा है।


गुरुवार, 14 नवंबर 2013

सुरति-सूत्र 2

सुरति-सूत्र
भूमिका

       भारतीय समाज इस दृष्टिगोचर संसार के साथ इसके अतिरिक्त एक रहस्यावृत लोक में भी विश्वास करता है। उसे सामान्य लोगों को उपलब्ध सुुख की इच्छा तो है ही रहस्यावृत सुख की भी आकांक्षा है, जिसे मोक्ष, महासुख, चरमसुख, निर्वाण आदि के नाम से भारतीय समाज जानता एवं मानता है। इस रहस्यावृत सुख की प्राप्ति का उपाय कुछ लोगों ने इस संसार एवं इस संसार के प्रचलित सुखों का परित्याग बताया है तो कुछ लोगों ने इस संसार के सुखों के भोग के साथ मोक्ष, निर्वाण या इसके समतुल्य अवस्था की उपलब्धि का मार्ग बताया है। भोग के साथ मोक्ष पर विश्वासवाली धारा ने इस विषय पर गंभीर और व्यापक कार्य किया है। कुछ लोग केवल सांसारिक सुख के भोग पर ही विश्वास कर उभयविध भोग की संभावना को ही नकारते हैं। यह उनके अज्ञान के कारण है। योग एवं तंत्र की प्रक्रिया के अज्ञान के कारण ही निराशा या निषेध की प्रवृत्ति विकसित हुई है।
        जो लोग योग या तंत्र का विधिवत अभ्यास करते हैं उन्हें वस्तुस्थिति का ज्ञान रहता है कि सुख के दोनो ही प्रकार सही एवं एक दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं हैं।
       यही बात यौन-सुख, काम-सुख, रति-सुख, आदि के रूप में ज्ञात सुख पर भी लागू है। इतना ही नहीं रति-सुख का स्थान सभी सुखों में महत्त्वपूर्ण एवं आकर्षक माना गया है। यह प्रत्यक्ष अनुभवगम्य है, इसमें किसी तर्क को आधार मानने की आवश्यकता नहीं है।
        एक ओर समाज में यौन सुख के प्रति गहरा आकर्षण है, यौन सुख के चरमोत्कर्ष को मुक्ति, निर्वाण की बराबरीवाला उच्च स्थान प्राप्त है वहीं दूसरी ओर यौन सुख के विरोध में भी अनेक प्रकार से  स्वर उठानेवाले लोग हैं । इस प्रकार  कई  ढोंग अनावश्यक विकसित होते चले गये हैं । अत्याचार, प्रतिरोध, कपट आदि ने इस ढ़ोंग को अपना ढाल बना लिया और बलात्कार, वेश्यावृत्ति, स्त्री या पुरुष की खरीद-फरोख्त, दास-दासी प्रथा, वेमेल विवाह जैसी अनेक कुप्रथाएँ अर्द्धनैतिक रूप से स्वीकृत हो गयीं । युद्ध की नैतिकता विजेता को सामूहिक बलात्कार का अधिकार दे देती है । यह प्रकृति के विरुद्ध है । इससे बलात्कारी कभी भी तृप्त नहीं होता, वह तो आगे चलकर उन्मादी एवं मनोग्रंथियों से ग्रस्त हो जाता है, पीडि़त या पीडि़ता प्रतिरोधी या अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं ।
स्वंय उलझकर या आधा-अधूरा अनुभव प्राप्तकर जब हम निर्णायक बनते हैं तो समस्या निंरतर उलझती जाती है । कोई सूत्र ही नहीं मिलता । बातें परस्पर विरूद्ध लगती हैं । अनावश्यक कौतूहल, दमन, एवं बढ़ते आकर्षण का संकट गहरा होता जाता है ।
                इन बातों की सच्चाई को स्वीकार करते हुए इस पुस्तक में सहज प्राकृतिक नियमों का निरूपण किया गया है । प्रयास किया गया है कि अब तक के सभी प्रमुख यौन सुख संबंधी प्राकृतिक उपायों का समावेश हो एवं वर्तमान की उलझनों को सुलझाने का ऐसा सुलभ मार्ग हो जो  अधिकतम लोगों को अनुकूल हो । जो ढोंगी, अतिवादी या अत्याचारी हैं, उन्हें यह पुस्तक बिलकुल नापसंद होगी क्योंकि यह उनके मुखैटे को उतारने का प्रयास करती है । लंबी अवधि तक चुंबन, अलिंगनादि प्रारंभिक क्रीड़ाओं से लेकर भागलिंग के घर्षण तक की- प्रक्रिया यहाँ भी स्वीकृत है किंतु गहरा सुख, गहरी तृप्ति तो  स्खलनकालीन सुख की गहराई एवं विस्तार में उतरने में है । उस चरम अनुभूति के काल की वृद्धि जो सामान्य जनों के लिए कुछ क्षणों के लिए होती है जब घंटों, दिनों एवं असीमकाल तक हो सकती है तब वह आनन्द वस्तुतः इतना गहरा होता है कि संसार के सभी सुख उसमें समा सकते हैं । इसकी उपलब्धि विपरीत लिड्ग़ी के सहयोग से रतिक्रिया के द्वारा एवं योगभूमि में ध्यान-प्राणायाम द्वारा अपनेशरीर में बिना किसी बाहरी संयोग के भी संभव है। यही भारतीय सिद्ध परंपरा की मानवता को देन है ।
विभागः- इस छोटी सी पुस्तक में 80 सूत्र है जो चार अध्यायों में विभक्त हैं। पहला- आधार खण्ड है । इसमें रतिसुख विषयक मूलभूत प्राकृतिक सिद्धांतों को सूत्रबद्ध किया गया है । दूसरा विक्षेप खण्ड  है, इसमें यौनसुख संबंधी उलझनों एवं उसकी प्रक्रिया का निरूपण है । तीसरा खण्ड उद्धार खण्ड है । इस खण्ड में यौन सुख की सामान्य एवं उदात्त अवस्थाओं का वर्णन है । चौथा खण्ड- उद्धार साधन खण्ड है । इस खण्ड मेें रतिसुख की उदात्ततम अवस्था तक पहुँचने के अनेकविध उपायों के साथ  इस संसार के सुखों की प्राप्ति की मूलभूत प्रक्रियाएँ  हैं ।
 सावधानियाँ एवं स्पष्टीकरण
      कामसूत्र जैसी,विस्तृत एवं विख्यात पुस्तकों के बाद भी ‘रति-सूत्र’जैसी संक्षिप्त पुस्तक की प्रबल आवश्यकता है एवं सार्थकता है, जिसे सावधानियाँ एवं स्पष्टीकरण शीर्षक के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया है।

सावधानियाँ एवं स्पष्टीकरणः-
कामसूत्रः-यह काम को विलास के रूप में ग्रहण करता है। उसकी विधियाँ मूलतः राजे-महाराजों के वैभव विलास के लिए है। सामान्य मनुष्य के लिए यह बहुत कम उपयोगी है। यह कामानंदतक सीमित है,उसके उदात्ततम रूप ब्रह्मानंद तक इसकी गति एवं दृष्टि नहीं है। परदारागमन, वाजीकरण के विविध योग एवं उपाय इसे स्थूल स्तर तक सीमित एवं नीति निरपेक्ष बनाते हैं। यह पुरुष प्रधान है।

रतिसूत्रः-यह पुस्तक काम को पुरुषार्थ एवं उपादेय मानती है इसलिए परोत्पीड़न, खंडित सुख के स्थान पर कामानंद से ब्रह्मानंद तक का मार्ग भी बताती है।
-रतिसुख को लक्ष्य मानने पर अन्य बातों की चिंता बेकार है।
-मनुष्य का अस्तित्व निरपेक्ष नहीं है। अतः सहयोगी के साथ पूरा वातावरण ही उसे प्रभावित करता है।
यह पुस्तक काम को उपादेय पुरुषार्थ के ंरूप मंे भौतिक रूप में एवं उसके सर्वसुंदर, सर्वव्यापी रूप में स्वीकार करती है । इस प्रकार कामशास्त्र, योग एवं तंत्र तीनों परंपराओं के प्रति यह पुस्तक आभारी है ।
इसमें वर्णित सिद्धांत एवं सूत्र उन साधकांे के अनुभवों पर    आधारित हैं, जिन्होने शास्त्रीय वचनों का गुरुपरंपरा से आचार एवं प्रयोग में लाकर परीक्षण किया है । उन साधकों के अनुभवों को भाषा एवं आकार देने का कार्य हमने किया है । इसलिए जो सत्य है वह हरगौरी का है, राधाकृष्ण का है, सिद्धों का है, साधकों का है, जो भ्रांति है वह हमारी है ।
सुधी-जनों का सुझाव एवं सहयोग सादर प्रार्थित है।
                                 रवीन्द्र कुमार पाठक
             

बुधवार, 13 नवंबर 2013


               सुरति-सूत्र 


              पारंपरिक शैली में योग-तंत्र धाराकी अभिनव कृति


             डा.रवीन्द्र कुमार पाठक
             डा. प्रमिला पाठक
         


                        समर्पण 
 


    पूर्ण निरुपाधिक सर्वाकाराकारित हरगौरी
                                     
                  को
       
                                    रवीन्द्र-प्रमिला

विषय सूची
  प्रथम
आधार खण्ड   -
मूल भूत सिद्धांत , सूत्र संख्या     1 - 32
                   
                     द्वितीय
विक्षेप खण्ड   -
उलझनें एवं उसकी प्र्िरक्रया , सूत्र संख्या   33 - 43

  तृतीय
उद्धार खण्ड
उदात्त अवस्था के विवध रूप , सूत्र संख्या   44 - 56

 चतुर्थ
उदात्त अवस्था की उपलब्धि के अनेकविध उपाय,
सूत्र संख्या   57 - 80

        पंचम
पठनीय पुस्तकें

मंगलवार, 12 नवंबर 2013

काम


उलटे क्रम में मोक्ष के बाद काम आता है। काम सर्वाधिक विवादास्पद, आखिर क्यों? क्योंकि सर्वाधिक आकर्षक है। इस संसार में अधिकांश लोगों के लिये काम के प्रति आकर्षण और विकर्षण दोनों प्रचुर पाया जाता है। काम शब्द से यहां मतलब कल्पना सुख को छोड़ कर मुख्य रूप से विपरीत लिंगी के साथ मिलने वाला सुख है। साथ ही विभिन्न साधना विधियों द्वारा बिना विपरीत लिंगी के सहयोग के भी अपने भीतर स्थित कामानंद जी हां कामानंद के अविरल गहन ओर असीम स्रोत के साथ एकाकार होना है । इसका महत्त्व इसलिये है कि यह----
1    सृष्टि का मूल है, यह सहज नैसर्गिक है
2    विवाह के रूप में इससे व्यवस्था और आरंभिक सत्ता का आरंभ होता है,
3    प्राकृतिक रूप से इसकी गहनता अन्य सांसारिक सुखों से अघिक किंतु क्षणिक होती है, इसलिये यह आकर्षण और बेचैनी दोनो पैदा करता है,
5    अपनी सहजता के कारण अनेक बार यह व्यवस्था और सत्ता के बंधनों को नहीं मानता अतः नैतिकतावादियों और अतिवादियों को इससे नफरत है और समाजप्रेमी बहुसंख्यक लोग इसे अपनाते तथा जीते हैं,
6    भारत के साधकों ने इसके रहस्य को समझा, इसकी क्षणिकता के कारणों की पड़ताल की और बताया कि कैसे इसे ठीक से पहचानें, अपनायें और अतृप्ति तथा बेचैनी से छुटकारा पाकर संतुष्ट ही नहीं हो अपितु आनंद के अविरल, गहन ओर असीम स्रोत के साथ एकाकार हों
7    ऐसे लोगों को गुमराह करना आसान नहीं है क्योंकि वे अनुभवी भी होते हैं और बहुसंख्यक समाज के साथ चलने के कारण सुरक्षित भी। रूढि़यों के विरुद्ध बोलने के कारण राजा] धर्माचार्य और धर्म के नाम पर पाखंड करने वाले तीनों ऐसे साधकों के शत्रु बन जाते हैं।
8    यह मेरी कोई कल्पना नहीं बहुत कुछ आपका भी भोगा हुआ सत्य हो सकता है।

     मैं अपनी बात क्रमशः रखूंगा और प्रयास करूंगा कि वह अनावश्यक गोपनीयता] भारी भरकम गूढ़ शब्दों के बोझ से लदा न हो।

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

तंत्र पर खुली चर्चा ग्रुप का गठन

अच्छी चर्चा चल पड़ी है।
अभी कुछ ही दिनों पहले तंत्र पर खुली चर्चा ग्रुप का गठन हुआ। अच्छी चर्चा चल पड़ी है। अगर आप भी योग, तंत्र, अनुष्ठान, कर्मकांड, समाज व्यवस्था, धर्म शास्त्र जैसे विषयों में रुचि रखते हों और ग्रुप के नियम से सहमत हों तो आपका स्वागत है।
नियम-
1 विभिन्न अनुभवों, साधना पद्धतियों, सामाजिक जीवन शैलियों को जानने-समझने की इच्छा ।
2 मतभिन्नता को सहने की क्षमता, अपनी खुली पहचान के साथ। अनुभव का सम्मान।
3 दूसरे पर निराधार या केवल अपनी मान्यता के आधार पर नीच, दुष्ट, पतित कहने से परहेज।
4 सोदाहरण, सप्रसंग, प्रश्न, आलोचना तथा अनुभव रखने की खुली छूट।
धर्म, संप्रदाय, आस्तिकता, नास्तिकता का कोई बंधन नहीं।

बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

तंत्र जब विशाल है ही तो हम क्या करें?

मैं ने आ. मिश्रजी का पेज देखा। वहां उदारता बहुत अधिक है। अनेक प्रकार की बातें और वे भी प्रचलित भक्तिमार्गी साधुशाही मूडवाली हैं। उसका रस अलग है।
मैं ने आज श्री जमुना मिश्रजी का पोस्ट भी पढ़ा। मुझे लगा कि मेरी बात इन तक पहुंची है। चर्चा स्पष्ट शब्दों में ही नहीं स्पष्ट अर्थों में होगी तभी समझ में आयेगी नहीं तो फिर हर बात को बस केवल मानने मनवाने का झंझट शुरू हो जायेगा। तंत्र जब विशाल है ही तो हम क्या करें? हम कौन होते हैं उसे छोटा करने वाले? इसलिये जरूरी है कि एक एक बात या उदाहरण या वर्गीकरण को ले कर आपसी अनुभवों एवं समझ से लाभान्वित हुआ जाय। भाव यह रहे कि हम परस्पर के लिये कर रहे हैं। जिन्होंने जप, ध्यान, हठयोग आदि में से जिस किसी का अभ्यास किया हो साधक उदारता रखे तो दूसरे की बात भी समझने लगता है।
मैं अनेक प्रयोगवादियों के सान्निध्य में रहा हूं। इस अनुभव से कहता हूं ऐसा साधक जो धारणा या प्रत्याहार के अनुभव से ऊपर गया है, वह आसानी से साधना पद्धतियों की विविधताओं को ही नहीं, उनके बीच के अंतर को भी समझने लगता है।
मुझे लगता है कि लोग केवल किताबें पढ़कर, वे भी परीक्षा में झटपट निश्चित सफलता टाइप, तुरत अपने को ज्ञानी मान लेते हैं। आवृत्ति को जप, धारणा को ध्यान, इसी प्रकार प्रतीक को सर्वस्व मान लेने की चलन ने इतनी समस्याएं पैदा की हैं कि इन उलझनों के विरुद्ध बोलने पर लोग आहत हो जाते हैं। उनका मानना इतना कठोर कि जानना नास्तिकता का सूचक हो जाता है।
भारत में दोनों प्रकार के सत्संग,चर्चा शास्त्रार्थ होते रहे हैं, दूसरे को समझने जानने के लिये  और अपनी या अपने गुरु के वर्चस्व को दूसरे पर लादने के लिये। इसी मानसिकता से वैष्णवों का एक संप्रदाय अपने को ‘‘प्रतिवादी भयंकर’’ कहता है। भयंकर से कौन बात करे? और इन भयंकरों से मिलना क्या है?

‘‘तंत्र पर खुली चर्चा’’ की तकनीकी एवं अन्य उलझनें

‘‘तंत्र पर खुली चर्चा’’ की तकनीकी एवं अन्य उलझनें
1 ‘तंत्र पर खुली चर्चा’’ में रुचि लेने वाले लोगों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वे इंटरनेट पर फेसबुक की तकनीकी समस्याओं, जैसे किसी के कंप्यूटर पर खुलना , न खुलना, अलग अलग जगहों पर अलग अलग टिप्पणियों  का बिखर जाना, आदि समस्याओं का या तो समाधान बतायें या सीधे ब्लाग पर ही आकर अपना विचार रखें। यदि इसमें किसी को कोई दुविधा हो या यहां भी कोई रहस्य हो, जिसे मैं समझ नहीं पा रहा तो कृपया अपने खुलेपन के साथ सहानुभूतिपूर्वक बतायें कि मैं समझ सकूं।
2 फेसबुक पर ‘‘तंत्र पर खुली चर्चा’’ विषयक जो भी चर्चा चली, टिप्पणियां आईं उन्हे मैं ने तंत्र परिचय ब्लाग ेंके एक स्वतंत्र पृष्ठ ..... पर संकलित करके डाल दिया है। वहां पर सबकी बातें एक साथ देखी-पढ़ी जा सकेंगी। जो भी व्यक्ति अपनी किसी बात को पूर्णतः निजी एवं गुप्त रखना चाहते हों, वे या तो प्रगट ही न करें या व्यक्तिगत मेल से चर्चा करें- मेरा मेल आइ.डी है-
3 तंत्र सबसे पहले मर्यादा की शर्त रखता है। समूह में होनेवाली चर्चा में उतनी उत्सुकता नहीं होती। शाबर मंत्र के अंदरूनी रहस्य क्या कोई बच्चा-बच्ची समझेगी? यह 18 साल में बालिग होने वाली कानूनी प्रौढ़ता से क्या हम सहमत हैं?
4 आप लोग कैसे सवाल पूछेंगे, विचार व्यक्त करेंगे? अगर प्रश्न और विचार ही कुंठित रह गये तो चर्चा कैसे होगी? मेरा एक सुझाव है- यह चर्चा चूंकि केवल और केवल तथ्य परक होनी है अतः रोचकता, साहित्यिकता, वर्णन में सरसता सौंदर्य आदि की अपेक्षा न करें। विषय वस्तु ही ऐसा है कि सीधे स्पष्ट वर्णन के बाद भी रहस्य, रोमांच तथा अंत में अगाध शांति तथा तृप्ति देनेवाला होगा।
5 कोई खुले न खुले मुझसे लच्छेदार शास्त्रीय संदर्भों से भरी पूरी जटिल अभिव्यक्ति की आशा न रखें। मेरा प्रयास होग कि एक अनपढ़ को भी जब ये बातें बताई जायें तो वह समझ ले। आप लोग तो पढ़े लिखे  हैं। नये जमाने के छोटे बच्चों को ऐसी बातों में रुचि ही नहीं होती। आगे से मैं भी अरोचक और सीधी सरल शैली में ही गंभीर तथा महत्त्वपूर्ण बातों को लिखूंगा। सरलता गोपनीयता का सरल उपाय है।

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

भोजपुरी का शाबर मंत्र



जब तक तंत्र पर विधिवत चर्चा शुरू नहीं होती मैं भोजपुरी का एक शाबर मंत्र अधूरे रूप में यहां रख रहा हूं। पूरा मंत्र ब्लाग पर मिलेगा। इसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं हैं। यह स्वयं सिद्ध है। जरा आप अपनी समझने की आदत को बदल कर समझने का प्रयास करें। यह मंत्र बिना पूरे अनुष्ठान को जाने शायद समझ में न आये। इसका प्रयोग घर की बड़ी-बूढ़ी औरतें  झल्लाये बच्चे को शांत करने के लिये करती रही हैं। आधुनिक शिक्षा वाली पीढ़ी को यह ऊटपटांग लगता है। इसलिये यह प्रयोग लुप्त हो रहा है-। इस अनुष्ठान में एक दीपक, घर में चूल्हा लीपने वाला पोतन मूल अवश्यक सामग्री होती है। उसमें भी मूलतः दीपक। घर की बुजुर्ग महिला रोता हुआ बच्चा और उसे गोद में संभालने वाली औरत। मंत्र है- ‘‘आको माई चाको, कुलदीप माई माको। जिन मोरा बबुआ के नजरी लगइहें, बियाये के बियइहें, बेंगुची बियइहें, डाल दीहें पानी में छपकत जइहें।’’
मैं ने कई महिलाओं को खाश कर अपनी परदादी को इसका सफल प्रयोग करते हुए देखा है।