तंत्र को अनुभव और उसकी पद्धति और उदाहरण की कसौटी पर अगर कसें तो सही स्थिति का पता चलेगा।
योग ‘‘बच्चा’’, ऐसा प्रचलित वक्तव्य है मेरा नही। तंत्र सर्वांग व्यवस्था को प्रधानता देता है लेकिन भक्त जुटाने के लिए और अपनी महिमा बढ़ाने के लिए एक ही बात को योग एवं तंत्र दोनेां नाम से कहा जाता है। हठयोग में भी आसन, सामान्य प्रणायाम से उपर आकर गहन कुंभक, बज्रोली - सहजोली, उनके साथ गहन कुंभक की प्रक्रिया आयेगी तो तंत्र मंें भी शक्ति चालन, कुंडलिनी को मूलाधार में सक्रिय कर स्वाधिष्ठान की ओर भेजने के लिए उस विधिका भी सहारा लिया जाता है। गोरख वाणी में ‘अर्धे जाता अर्धे धरे, काम दग्ध जोगी जो करे’ - आदि वर्णन आते हैं। यह तो हठयोग एवं कुंडिलिनी योग ही नहीं, वाम मार्गी तंत्र की भी प्रक्रिया हो गई।
मूलाधार से पहले कमल नाल, आजकल रबर की नली से पानी, तेल और बाद में वीर्य को ऊपर खींचने की पक्रिया हठयोग में आयेगी, स्त्री योनि एवं शरीर को पूर्ण उत्तेजित रखने एवं स्खलन से बचने की प्रक्रिया तंत्र में जाएगी।
हठयोग प्राणायाम का सहारा लेगा, बंध का अभ्यास बताएगा। तंत्र में सुविधा मिलेगी मंत्रों की आवृत्ति में मन को रोकने भटकाने की। उससे उत्कृष्ट होगा अपने ही मनेामय कोश का साक्षात्कार, अपने ही भीतर के चेतनामय शरीर में क्रमशः प्रवेश करते जाना। ध्याान योग में सुषुम्ना स्वतः चलने लगेगी। नाद बिंदु का मिलन होगा, त्रिकुटि लय होगा। स्वतः प्रत्याहार एवं धारणा सध जाएगी।
अब क्या? उसके बाद तो प्रकृति सारा रहस्य खोलकर दिखाने लगेगी। अमृत वर्षा होगी। स्खलन कालीन क्षणिक सुख घंटो वाला हो जाएगा। ऐसी मस्ती कि उसमें से निकलने का मन ही नहीं करेगा। उसके साथ-साथ जीना चाहें तो कुछ घटो बाद सामान्य मनुष्य का शरीर साथ नहीं दे सकता।
सांस उत्तेजना, धड़कन आपके हाथ में आ तो गये, लेकिन सीमा बनी हुई है कि शरीर को स्थिर शांत कर या तो ध्यान की ओर बढ़ें या फिर उतर कर जान बूझकर भी इसी दुनियाँ में अन्य मनुष्यों की तरह जिएं।
उसी तरह योग में जो उस स्थूल शरीर के भीतर एक पहला स्वतः संचालित क्रियात्मक प्राणमय शरीर और अनुभव करने वाले शरीर मनोमय का बोध होता है, उसमें काफी समय लग जाता है। तन, मन की चंचलता को शांत करने या स्वतः शांत होने दोनो में बहुत विघ्न आते हैं।
तंत्र में और खाशकर लोकप्रचलित प्रणाली कहें या सिद्ध पंथ वाली उसमें मात्र एक सप्ताह से इक्कीस रोज के अंदर अन्नमय, प्राणमय, एवं मनोमय शरीर की संरचना एवं गतिविधि का साक्षात्कार वाला अनुभव हो जाता है। न भय, न घबराहट, शर्त यह है कि 10-20 लोगों की मंडली हो। वे एक दूसरे का भला करने वाले हों, उनमें विभिन्न आयु वर्ग के और स्त्री पुरुष दोनों हों तो समय कम लगेगा। बिल्कुल घरेलू सामाजिक व्यवस्था। न सबको तन से नंगा होने की जरूरत, न दारू, न संभोग फिर भी मन से नंगा होना जरूरी है। मन से परिचय करना है तो मन तो नगा करना ही पड़ेगा। उसके मनका कपड़ा उतारना पड़ेगा। इस तरह का किया कम, कराया अधिक, जानेवाला अभ्यास तंत्र हो गया। यही सब तो शादी-विवाह के अवसर पर मात्र 20-25 वर्ष पहले तक हो रहा था। कुछ कुछ अभी भी हो रहा है।
योग में कहें तितीक्षा, पार करने की इच्छा, बर्दास्त करने की बात।नदी तैर कर अकेले पार किया तो डूबने का खतरा। भीतर की अनुभूति के समय तो मनुष्य एकेला ही है। भम्र एवं भय दो बड़े खतरे हैं। तंत्र में अनुभवी लोग बाहर से देख रहे हैं। कहा गया कि हम जो भी करें तुम चुप रहना (साधक, साधिका, जो हो) बर्दाश्त करना, गाली दें, चिकोटी काटें, मार-पीट करें, आरती करें, सुंदर भोजन दें, ललचाएँ, रूप-कुरूप, भला-बुरा जो करें तुम मजे लो, मौन में हँसा। सोने तो दंगे नहीं, देखतेे रहेंगे कि इसकी मनोदशा कैसी कहां पर चल रही है। बच्चे से बूढे तक सभी लोग लगे हुए हैं सिखाने में। खेल-तमाशे हो रहें हैं। यह तो गया तंत्र, ऐसी प्रक्रिया में व्यक्ति बिना अधिक मिहनत के सकुशल हँसते-खेलते पार हो गया। फिर वह दूसरों के लिए खेल भी गढ़ सकता है और मार्गदर्शन भी कर सकता है।
मस्तिक में चतना की आकृतियाँ हैं। मुझे भीषण ज्वर में कुछ यंत्रों का साक्षात्कार हुआ, कुछ ध्यान मे,ं यह योग हुआ। बाहर में यंत्र लिखकर भीतर के यंत्रों की छाप/स्मृति को सक्रिय करना तंत्र हो गया।
इस प्रकार से उदाहरणों के द्वारा योग और तंत्र के अंतर को वर्गीकृत किया जा सकता है लेकिन अनुभव में हुआ तो साथ ही साथ उसी शरीर में न। इसलिए सिखाने वाले उदार गुरु तंत्र के वर्गीकरण या उसे सिखाने न सिखाएँ उस चक्कर में नहीं पड़ते। हर स्थिति का लाभ उठाने को कहते हैं। आप जप करें यह भी विधि है। किसी मंदिर में जा कर जहाँ देर तक सामूहिक कीर्तन हो रहा हो। उसे सुने यह भी विधि है।
कितना उदाहरण दें। आशा है, आप तक कुछ न कुछ मेरी बात पहुँच गई होगी। भाई उदय जी आप ने स्वयं अपना साधनात्मक परिचय नहीं दिया है। अपने या अपने गुरुजी के बारे में नहीं बताया और प्रश्न इतना गहरा? पता नहीं आपकी परीक्षा में मुझे कितने अंक मिलेंगे? परिचय रहने पर साधक को उसके अनुरूप उत्तर देने में सुविधा होती है।
मेरे मन में तो आता है कि आरंभिक परिचय वाला ऐसा परिवारिक कार्यक्रम बनाना चाहिए। उससे लोक लज्जा का भय भी नहीं रहेगा और आसानी से बच्चे से बूढे़ तक हँसते-खेलते कम से कम अपने भीतर जाने के रास्ते से तो परिचित हो ही जाऐंगे। केवल एक उदारता चाहिए। उदारता अर्थ व्यवस्था की, जिससे सप्ताह तक रहने खाने की व्यवस्था निकले। उदारता छुआछूत से ऊपर उठने की। उदारता स्त्री-पुरुष, सधवा-विधवा, बच्चे-बूढ़े के तन के साथ मन को भी प्रेम पूर्वक स्वीकारने की, अपने हीं इष्टदेव अपनी हीं पद्धति की जगह इस बिना देवता, बिना बीज, मंत्र के अभ्यास की।
उस आरंभिक परिचय से तंत्रोक्त, दिग्बंधन, कवच, न्यास, अभिषेक इन सभी को पाठ नहीं, अनुभवात्मक रूप से समझने की सुंदर पृष्ठभूमि तैयार हो जाएगी। आप की मर्जी जिस किसी भी महाविद्या या देवी-देवता की साधना करें।
इससे अधिक यूँ ही क्या बकता रहूँ। अवसर पर कर लिखूँगा। उपर्युक्त जितना लिखा है। वह अनुभूत है। ध्यानयोग, कंुडलिनी और लोकाचार वाला मेरा और पूरे समाज का जहां ऐसी साधना होती रही। हठयोग वाला आंशिक मेरा शेष मेरे मित्र साधकों का और वामाचार वाला वरिष्ठ साधकों का। चूँकि उस संसार में मैं कोई पहला तो हूँ नहीं अतः ये विधियाँ थोड़े-थोडे़ अंतर से पुस्तकों में वर्णित भी हैं।
उन्हीं बातों को दैनिक अभ्यास और कर्मकांड में डाल दिया तो सामान्य धर्माचरण की बात हो गई, परंपरा बन गई। जहाँ अनुभूति नहीं है, बिना सोचे समझे ज्ञानार्जन के, बस यूँ ही चल रहा है, वहाँ नियम आधारित खेल नहीं है। शुद्ध मनोरंजन वाला भी नहीं, बस देखा देखी खानापूर्ति वाला परंपरा का पालन है। उससे श्रद्धा तो है लेकिन वह ज्ञान से हीन है।
योग शास्त्र सीधा प्रशिक्षण है। यहाँ योग से मतलब हठयोग और अष्टांगयोग से है। सीधा रास्ता बताने में मनोरंजन नहीं होता न ही सामूहिकता की अनिवार्यता होती है। साधक एक अकेला, वैराग्य भावना वाला तटस्थ भूमिका का अभ्यास करता है। उसमें भी अपने मन की सूक्ष्म से सूक्ष्म गहरी अवस्थाओं का तटस्थ साक्षात्कार करता है। इसलिये योगी को बहुत अधिक संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती।
तंत्र की विधियों में खेल भावना, सामूहिकता, परोक्षता, उत्सव, रंग, ध्वनि, गीत, खाद्य सामग्री हीं नहीं, इस सृष्टि की किसी भी उपयोगी सामग्री को सम्मिलित कर लेनी की संभावना है। संरचना को केवल जानना नहीं, उसकी स्थूल, भौतिक, संासारिक संरचना का अनुभव करने पर भी उसे अपने वश में रखना है। इसलिए तंत्र मंें काम, क्रोध, लोभ, द्वेष और मोह सभी अपने छोटे से लेकर बृहत्तम रूप में स्वीकृत हैं। ये अस्पृश्य विषय नहीं हैं।
वह तांत्रिक कैसा जो काम भावना से भरा नही हो, क्रोध जिसकी आँखों से बरसता नहीं हो और हृदय अगाध करुणा से भरा नहीं हो। जो सबको अपना न मानता हो और जिसे यह स्पष्ट हो कि कैसे प्रकृति नहीं, महामाया इस सृष्टि में क्षण-क्षण रूप एवं भाव का परिवर्तन कर रही है। वह जीव मात्र में शिव-शक्ति, राधा-कृष्ण, प्रज्ञा-उपाय के मिलन, मिलन की आतुरता एवं मिलनोपरांत सृष्टि को देख देख उत्सव मनाता है, मृत्यु एवं विनाश पर खूब हँसता है।
आज जो तंत्र चर्चा होती है वह प्रायः बैखरी पाठ, उपांशु जप, बाह्य स्तुति, चमत्कार, जजमान को फुसलाने, धारणा का अभ्यास तक सीमित रहती है। इष्ट के साथ तादात्मय की पहली अवस्था में ही लोग डरते जाते हैं क्योंकि यह द्वैत को तोड़ता है और बाद में भ्रम को भी।
धारणा या मन को एकाग्र करने की विधि में कल्पना की सुविधा रहती है। यहाँ जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी, वाली सुविधा रहती है। यह होश संभालने वाली, सच्चाई को स्वीकार करनेवाली दशा नहीं है। यहाँ अपनी रुचि की मूल वृत्ति के अनुसार देवता की संपूण्र कल्पना में डुबने उतराने की सुविधा है। यह एक नशे के समान है। अतः कुछ लोग इस अवस्था तक नशे के माध्यम से भी पहुँचना चाहते हैं। तंत्र में मन को एकाग्र करने के लिये गीत, संगीत, लीला, कथा, अभिनय, नृत्य, उत्सव सब स्वीकृत है। चक्रपूजा, व्यूह भावना, मंडल गीत, योगी योगिनी के नृत्य, कथा, पूजा, प्रसाद, तीर्थयात्रा, ईष्ट एवं गुरु की जयंती, गुरुपूजा संप्रदाय या परंपरा में अपने को खोलने विकसित करने एवं एकाग्र रहने की सुविधा प्रदान करते हैं। इसमें भक्ति और संगठन की प्रधानता है। भीड़ को यही पसंद है लेकिन तंत्र सम्मत गहरी बातें तो इसके ऊपर हैं।
वहाँ मनमाना नहीं चलेगा, समर्पण करना होगा, वह भी अपने ही समक्ष। कल्पना वाले शिव के साथ धारणा जैस ही ध्यान में परिणत होगी। अर्थात एकाग्रता से बढ़कर तादात्म्य होगा वैसे ही पता चल जायेग कि धत्तेरे की यह तो मेरा भ्रम था, असली बात तो और गहरी है। यह एक साथ का संयोग और वियोग अनेक साधकों को सहन हीं होता, मनोविकृति आ जाती है। इसलिये इस विधि को गुप्त रखा जाता है। उसी तरह की प्रक्रिया क्रमशः गहरी होती जाती है। कल्पना की जगह प्रकृति पुरुष के असली रूपों का साक्षात्कार होने लगता है। यह भ्रम टूटना बहुत दारुण होता है इसलिए असली परंपरागत साधना विधि में स्थूल रूप के साथ सूक्ष्म रूप का वर्णन आरंभ से रहता है कि स्थूल आलंबन की जगह सूक्ष्मतर आलंबन का सहारा बना रहे।
इससे अधिक खोलने की कोई सार्थकता नहीं होगी। जो साधक साधिका चाहें अलग से चर्चा कर सकते हैं।