रविवार, 30 मार्च 2014

योग और भोग

योग और भोग
भोग वेफ प्रति मनुष्य का सहज आकर्षण है। भोग का क्षेत्रा एवं स्वरूप अति विस्तृत एवं विविध्तापूर्ण है। योग वेफ विस्तार तथा विविध्ता की चर्चा पहले की जा चुकी है। यहाँ
योग वेफ साथ भोग वेफ संबध् की चर्चा की जाएगी। सुविध हेतु भोग का वर्गीकरण निम्न
प्रकार से किया जा सकता है - ;1द्ध भोगजनित संस्कार एवं संस्कारजनित भोग की
दृष्टि से तथा ;2द्ध भोग वेफ स्वरूप एवं स्तर वेफ भेद की दृष्टि से।
भारतीय संस्कृति में कर्म-पफल का सि(ांत व्यापक रूप से मान्य है। जैसा कर्म वैसा
पफल। पूर्व कर्म वेफ कारण ही भोग की सामग्री एवं परिस्थिति दोनों उपलब्ध् होती है।
साथ ही, उस पफल का भोग करते समय भी नए संस्कार उत्पन्न होते जाते हैं जो नए
भोगों वेफ पूर्ववर्ती कारण बनते हैं। कर्म-पफल वेफ सि(ांत की प्रक्रिया में विविध्ता है, पिफर
भी मूलतः सहमति है। मन स्वयं योजनाकार, आदतों का वाहक एवं अपना सहज
नियामक है। इस प्रकार योग की भोग में दो भूमिकाएँ हो जाती हैं।
सामान्य ;संस्कारजनकद्ध भोग में योग की भूमिका
हमारे मन में अनंत सुख पाने की इच्छा है। इसवेफ लिए हम अनंत सामग्री का भोग
करना चाहते हैं। योग इस स्तर पर भी भोग का सहायक है, विरोध्ी नहीं।
योग की दृष्टि विकसित करना एवं उसकी विध्यिों का लाभ उठाना, दोनों भिन्न बाते
हैं। इसे सापफ-सापफ समझ लेना चाहिए। जैसे योग वेफ अनेक स्वरूप एवं स्तर हैं वैसे
ही योग वेफ अभ्यास भी स्थूल एवं सूक्ष्म, कई प्रकार वेफ हैं। विविध् अभ्यास विविध् प्रकार
से भोग भोगने में सहायक हो सकते हैं। स्थूल एवं सूक्ष्म वेफ अंतर्संबंधें की अनुकूलता
न होने से भोग की योजना या भोग का कार्यान्वयन भोग करने वाले का ही अनिष्ट करता
है। इसी प्रकार सूक्ष्म का विरोध्ी स्थूल योगाभ्यास भी अभ्यासी का अनिष्ट ही करता है।
कल्पनाप्रधन भोग - अनेक भोगों की इच्छाएॅं इस संसार में पूरी नहीं की जा सकती
हैं। किंतु कल्पना की गहन तन्मयता में व्यक्ति को ऐसा प्रतीत होता है कि वह वस्तुतः
उसी भोग को भोग रहा है। स्थायी रूप से राज्यपद पाना कठिनतम है किंतु यह कल्पना
करने में और तृप्त होने में उतनी कठिनाई नहीं है कि आज मैं राजा हूँ, राज्य-सुख
का भोग कर रहा हूँ।
अति विशिष्टता का यह सुख मनुष्य आंशिक रूप से रंगमंच वेफ अभिनय से लेकर दूसरे की
बारात तक में कल्पनापूर्वक भोग लेता है। इसी प्रकार की विध्यिाँ अनेक हो सकती हैं।
स्वप्नप्रधन भोग - स्वप्न का अनुभव कल्पना वेफ अनुभव से भी अध्कि गहरा एवं
सुविधजनक है। भोक्ता को पता ही नहीं चलता है कि यह सत्य है या नहीं। वह स्वप्न
में सत्य ही अनुभव करता है। हमारी अनेक दमित इच्छाएॅँ स्वप्न में पूरी होती हैं। भोग
की कुछ प्रणालियाँ स्वप्न को भी नियंत्रित एवं अनुकूलित करना सिखाती हैं। इससे आप
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स्वप्न का आनंद अपनी इच्छा वेफ अनुरूप ले सकते हैं।
रेचनमूलक भोग - बहुत सारी इच्छाएॅं टूट-पफूटकर स्मृतिकोष में अव्यवस्थित हो जाती
हैं। वे भीतर में अराजकता वेफ कारण बेचैनी पैदा करती हैं, स्मृति को दूषित करती हैं।
इनका स्वभाव है कि ये बहुत गहरे स्तर पर संचित नहीं रहतीं हैं। इन्हें कचरा मानकर
रेचन की विध्यिों द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है। रेचन वेफ समय की सजगता
साक्षीभाव में साध्क को उसवेफ मन की अराजक स्थिति से परिचित करा देती है। उस
समय अहंकार को थोड़ी चोट तो पहुँचती है किंतु मन हल्का एवं पहले से अध्कि
व्यवस्थित हो जाता है।
विश्लेषणात्मक भोग एवं ग्रंथिभेद - आध्ुनिक मनोविज्ञान वेफ विकास वेफ साथ-साथ
दमित इच्छाओं वेफ मानसिक ग्रंथियों में परिणत होने की आजकल खूब चर्चा होती है।
रेचन वेफ अभ्यास वेफ अगले चरण में या पूर्व भी ऐसी मानसिक उलझनों को स्मृतिपटल
से जाग्रत पटल पर लाकर सत्य एवं वास्तविकता वेफ अनुरूप पुनःसंयोजित करने की
विध्यिाँ एवं उस समय वेफ भोग इस श्रेणी में आते हैं।
इस अभ्यास से सांसारिक भोगों वेफ प्रति यथार्थवादी दृष्टि बढ़ने से भोक्ता का सामर्थ्य
एवं क्षेत्रा बढ़ जाता है। भारतीय योग परंपरा की दृष्टि से जन्म वेफ पूर्व से ही, अर्थात्
अनेक जन्म की वासनाओं से बनी कई गं्रथियाँ अभ्यास एवं सामर्थ्य से नियंत्रित एवं
संतुलित की जाती हैं। इन ग्रंथियों की संरचना को जानने एवं उन्हें नियंत्रित करने की
साध्ना भारतीय दृष्टि का गं्रथिभेद है।
पूर्व स्मृतियाँ, पूर्व जन्म तक की स्मृतियाँ संस्कार रूप में भीतर में पड़ी रहती हैं। उनमें
सत्य-असत्य, पीड़ा-आनंद आदि अनेक प्रकार की सामग्रियाँ रहती हैं। कुछ स्मृतियाँ
सचेत अवस्था की तृप्त स्मृतियाँ होती हैंं, कुछ अतृप्त एवं अचेतावस्था की होती हैं।
पुरानी स्मृतियों को मन की गहराई से पूरी तरह निकाल बाहर करने की साध्ना
विश्लेषण-प्रधन योगधरा में की जाती है। अतीत की ये स्मृतियाँ ध्ीरे-ध्ीरे ध्यानभूमि
में अवतरित होती जाती हैं। साध्क को यह सजीव सा लगता रहता है किंतु यह बोध्
रहता है कि ये केवल स्मृतियाँ हैं।
इस क्रम में स्मृतियाँ अपनी संपूर्णता में अवतरित होती हैं। यह क्रम तबतक चलाया जाता
है जबतक साध्क को अपने कई पूर्व जन्मों का स्मरण न हो जाय। जन्म वेफ स्मरण
वेफ साथ मृत्यु का स्मरण होना भी सहज हैे। इस प्रक्रिया में सुख एवं दुख का गहरा
भोग होता है।
बिंबों का रूपांतरण - तंत्रा एवं योग की रूपांतरण-प्रधन ;वाशिष्ठ धराद्ध में संपूर्ण
सामग्री को रूपांतरित करने की व्यवस्था है। अतः स्मृतिबिंबों को विश्लेषित करने की
जगह रूपांतरित कर दिया जाता है। इससे भोगने में अनुकूलता आ जाती है।
ऊर्जा का रूपांतरण - सामान्य व्यक्ति मन एवं उसकी कार्यप्रणाली को जिस रूप में
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समझता है, वह वैसा ही नहीं है। योगी वेफ लिए प्रेम और घृणा की ऊर्जा एक है। रुदन
एवं हास्य मूलतः एक हैं। वह अपने रुदन को हास्य में परिवर्तित करना तो जानता ही
हेै, दूसरे को भी इस अनुभूति तक ले जा सकता हैे। रुदन को हास्य वेफ रूप में कौन
नहीं भोगना चाहेगा? घृणा प्रेम में रूपांतरित हो जाय तो इससे और अच्छा क्या होगा?
योग की साध्ना में समर्थ गुरु वेफ लिए यह सब चुटकुला सुनाने के समान है।
शक्तिशाली अदम्य इच्छाओं का चेतनापूर्वक भोग - कुछ इच्छाएँ इतनी प्रबल
होती हैं कि उन्हंे आंशिक या प्रतीकात्मक रूप में भोगना मन को मंजूर नहीं होता है।
मन की गहरी परतों से लेकर जाग्रत स्मृति तक उनका पफैलाव होता है। विश्लेषण,
रूपांतरण या रेचन करने की तुलना में ऐसी इच्छाओं का भोग कर लेना ही कभी-कभी
सुविध की दृष्टि से भी आसान होता है। ऐसी स्थिति में अदम्य इच्छाओं का सीध्े-सीध्े भोग
कर लेना भी योग परंपरा को मान्य है। कभी-कभी अपनी आवश्यकता न होने पर भी
संसार वेफ कल्याण वेफ लिए योगी लोग भोग भोगने वेफ लिए तैयार हो जाते हैं। बौ(
परंपराओं में ऐसे महानुभावों को बोध्सित्त्व कहा जाता है। उनकी करुणा की इच्छा ही
उन्हें बार-बार जन्म लेने को विवश करती है। भक्तिमार्गी संत भी पुनः जन्म लेने या
संसार वेफ सुख-दुख को भोगने से भागते नहीं हैं। कर्मयोगी भी इसी कोटि में आते हैं।
उक्त भोगों वेफ लिए तन-मन को सक्षम-सुदृढ़ बनाना - उपर्युक्त सभी प्रकार वेफ
भोगों को भोगने वेफ लिए यह आवश्यक हेै