मित्रो एक समय था जब हठयोग की सामान्य बातों को भी ईश्वरीय चमत्कार की तरह कहा जाता था और झूठा प्रचार होता था कि योगी अपनी आंत को बाहर निकाल कर धोता है। दरसल योगी के पास गेरू रंग की लंगोट होती थी । ऐसे ही वस़्त्र से वह पेट साफ करने की धौती क्रिया करता था, जिसमें पहले कपड़े को निगला जाता है फिर उसे बाहर निकाला जाता है। नदी में ऐसा करता देख लोगों को लगता था कि योगी अपनी आंत को ही निकाल कर धो रहा है। लार से लिपटी लंगोट आंत की तरह दीखती है।
साधना की अनेक धाराएं हैं। ईमानदार आस्तिक और ईमानदार नास्तिक कोई भी योग या तंत्र का अभ्यास कर सकता हैं बात में जब सच्चाई हो तो नास्तिकता से डर कैसा? अनेक धाराएं हैं, केवल अतिवादी वाम मार्ग ही थोड़े है। आज तो संकल्प करना ही नहीं जानते। इसे जान लेने से भला किसका क्या बुरा होगा? संध्या, गायत्री केवल पाठ मात्र हो कर सिमट गई, इसे प्रायोगिक रूप से जानने से कौन अनिष्ट हो जायेगा? नहीं खोलेंगे तो अगली पीढ़ी कामसूत्र को ही तंत्र शास्त्र की सबसे उत्तम पुस्तक समझेगी। अपनी चेतना के ऊर्ध्वारोहण की कोई कल्पना ही नहीं करेगा।
मेरी समझ से ओशो ने कुछ भी नहीं खोला, न करपात्री जी ने। घेरंड संहिता के एक श्लोक को तो इन्होंने खोला ही नहीं और झूठमूठ का बवाल कराया।
मैं किसी की परंपरा का अनादर नहीं करता साथ ही यह भी ध्यान दिलाता हूं कि अनेक मार्ग हैं। मैं ने अपने गुरुजी से इजाजत ले कर विभिन्न लोगों के साथ सत्संग किया और तब पता चला कि समानता और अंतर क्या है। अभी गुजरात भी एक विरक्त साधक को सहयोग करने ही गया था। मैं आप सबों का बहुत आदर करता हूं। आपकी बात काटने का मन नहीं हैं फिर भी आपका ध्यान आकृष्ट करना जरूरी है कि जैसे पहले सामान्य आसन-प्राणायाम को भी रहस्यमय एवं गुप्त बताया जाता था। इसका बुरा परिणाम यह हुआ कि इन सामान्य बातों को भी लोग असंभव मानने लगे थे। स्वामी शिवानंद जी, स्वामी कैवल्यानंद जी आदि ने स्वयं तथा अपने शिष्यों के माध्यम से बेमतलबी गोपनीयता के आवरण से इसे ऊपर निकाला। योग जोग एवं टोटका नहीं रहा।
उसी तरह कुछ लोगों को जिन्हें जितना प्रायोगिक ज्ञान है उतना तो सही साफ सुथरे स्पष्ट ढंग से बिना सांप्रदायिक ब्रांडिग के सरल ढंग से कहना ही चाहिये। मैं ने यह हिम्मत जुटाई है। जिसे मर्जी पढ़े, लाभ उठाये या फिर दुकानों की चक्कर लगाये। कोई सीखना चाहेगा तो उसी सरलता से सिखाऊंगा भी। बिना जाने-समझे अगर भ्रम फैलाना पुण्य है तो मैं इससे उलट अनुभव आधारित बात कहने का प्रयास करूंगा।
मैं अपने अनुभव, शास्त्रीय वचन और व्याख्या इन तीनों को मिलाता नहीं हूं। जो अनुभूत और पक्का है, वह तो है ही। मैं भी एक सामान्य मनुष्य ही हूं, मुझे अनुभव हो सकता है तो दूसरों को भी अनुभव हो सकता हैं। जो प्रयास ही नहीं करेंगे, उन्हें भला अनुभव कैसे होगा?
अभी हाल यह है कि यूरोपियों के अनेक ऐसे समूह हैं जो योग एवं तंत्र की क्रियाओं तथा निजी अनुभवात्मक बातों को आपस में बांटते हैं किंतु पता नहीं भारतीयों और हिंदी भाषी लोगों को इतना डर क्यों लगता है?
जो योग एवं तंत्र की क्रियाओं को अनुभवात्मक रूप से नहीं जानते वे ज्यादा ही लिखते-बोलते हैं। जो थोड़ा बहुत जानते हैं उन्होंने भी बड़ी पगड़ी बांध रखी है, इसलिये उन्हें डर लगता है कि कहीं भेद न खुल जाये। मैं जितना जानता हूं उतने का ही दावा करता हूं । न भेद है, न खुलेगा। हमारी मंडली में अनेक योग-तंत्र के गृहस्थ अभ्यासी साधक हैं। सबके पास अपने-अपने स्तर का अनुभव है। सबके गुरु एक ही हों यह भी जरूरी नहीं है। कहने को खुला मंच और केवल अपने ही गुरु की दुकान यह चलता नहीं है। तुरत लोग उदास हो जाते हैं।
केवल कॉपी पेस्ट से अलग एक ऐसा ग्रुप होना चाहिये जहां प्रयोग करने वाले अपना अनुभव और प्रश्न बिना हिचक रख सकें और अगर किसी के पास सुझाव या अनुभव है तो वह सहयोग करे। यदि आपकी जानकारी में ऐसा ग्रुप हो तो बहुत अच्छा अन्यथा लगता है कि अब मुझे ही ऐसा एक ग्रुप बनाना पड़ेगा, भले ही उसमें संख्या कम हो। यह एक प्रयोग ही सही। कुछ लोग फिर से इसे सायंस की कठिन पदावली में डाल कर इसे बिकाऊ और दुर्लभ बनाना चाहते हैं।
कुछ लोगों को जिन्हें जानकारी है उन्हें आगे आना होगा। सच बातें जब सामने आयेंगी तभी तो सच्चाई के प्रति जिज्ञासा या आकर्षण होगा? अभी जो जैसी उलटी सीधी बातें लोग सुनते हैं, वैसा विश्वास करते हैं। यह ग्रुप केवल वास्तविक अभ्यासियों के लिये होगा। कॉपी पेस्ट के लिये नही।
आपको अनुचित लगता है तो न करें, यह आपकी मर्यादा है। मुझे तंत्र को उसके वास्तविक रूप में ही कहना रखना है किसी सीमित अर्थ में नहीं चाहे वह वामाचार हो या चीनाचार। तंत्र केवल अभिचार की विद्या थोड़े ही है। इसके उदात्त पक्ष से वस्तुतः किसी को कोई हानि क्यों होने लगे? जो अभिचार करें वो उसका परिणाम भोगें।