शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

सुरति सूत्र : विक्षेप खंड




                विक्षेप खंड
                दूसरा अध्याय




    रतिसुख संबंधी मानसिक ग्रंथियाँ, उलझनें

       मानव का यह दुर्भाग्य है कि अनेक व्यक्ति किसी न किसी रूप में कामवासना विषयक गं्रथि से लगभग पीडित हैं। एकांत में यदि पूछा जाए और पूछनेवाले तथा जबाव देनेवाले के बीच यदि कोई अहंकारपूर्ण संबंध न हो तो प्रायः सभी महसूस करेगें कि उन्हें कामवासना सताती है और वे पूर्णतः तृप्त नहीं हैं। चाहे परिस्थिति अनुकूल न हो, चाहे उन्हे भयानक अरुचि हो गई हो या अवस्था ढल जाने के कारण षारीरिक सामर्थ्य न हो तो भी कामवासना मरते दम तक साथ छोड़ती नहीं है और व्यक्ति उससे छुटकारा पाने के लिए या अघिकतम आनंदानुभूति प्राप्त करने के लिए किसी न किसी रूप में सिर पीटता पाया जाता है।
बात बहुत उलझ गई है। अतः सुलझाने के पूर्व इस उलझन को भी थोडे़ विस्तार से समझना जरूरी है। मैं ने अपनी समझ की सुविधा के अनुरूप इन ग्रंथियों को, उलझनों को सात प्रकार से वर्गीकृत किया है। कोई व्यक्ति एक या अनेक ग्रंथियों का एक साथ भी षिकार हो सकता है।
दुर्भाग्य से भारतवर्षश्में सभी प्रकार की गं्रथियों से ग्रस्त लोग भी मिल सकते हैं। वे भी अतृप्तिमूलक गं्रथि से प्रभावित रहते हैं। अर्थात् अतृप्ति के कारण बार बार रतिक्रिया एवं आनंदानुभूति तो उन्हें होती है फिर भी उन्हें अतृप्ति का बोध दुख पहुँचाता है और दुबारे जब षारीरिक या मानसिक सामर्थ्य प्राप्त होता है वह पुनः रति की ओर प्रेरित करता है और यह दुष्चक्र चलता रहता है। बार बार प्रवृत्ति, बार बार अतृप्ति बार बार फिर प्रवृत्ति और इस अंतहीन सिलसिले में पड़कर व्यक्ति अंततः अपने  आप को दुखी महसूस करता है।
दूसरे प्रकार की गं्रथि में पाप का बोध मूल में रहता है और यह द्वन्द्वप्रधान होती है। व्यक्ति के मन में यह भाव रहता है कि मैं कोई पापमूलक आचरण कर रहा हूँ। न तो वह सुख ही ले पाता है और न उस आकर्षण से मुक्त ही हो पाता है और भय भी उसे बहुत सताता रहता है।
तीसरे प्रकार की ग्रंथि से भी कुछ लोग पीडि़त रहते हैं। इससे पीडि़त व्यक्ति बहुत अधिक प्रयास करता है। वह बहुत साधन, श्रम, सामर्थ्य का आनंदानुभूति के लिए व्यय तो करता है लेकिन आनंदानुभूति इतनी क्षणिक होती है कि वह बेचैन हो उठता है कि यह क्या हुआ? उसे कुछ व्यापक गहरी अनुभूति होती नहीं है और यह क्षणिक आनंदानुभूति  की अतृप्ति उसके भीतर गुस्सा उत्पन्न करती है और वह फिर दुगने वेग से उसमें प्रवृत्त होता है और उसे अत्यंत क्षणिक अनुभूति होती है और इसके बाद ‘फिर और’ ‘फिर और’ वाला चक्र उसके साथ चलता रहता है।
कुछ लोगों को तृप्ति तो होती है लेकिन अत्यंत अल्पकालिक। वे विस्तार चाहते हैं, ताकि कुछ संतोष हो जाय क्योंकि उन्हें अनुभव होता है कि और गहरी अनुभूति होती तो उससे दीर्घकाल तक मैं दुबारा प्रवृत्त नहीं होता। अतृप्त व्यक्ति अनेक बार उत्तेजित, प्रवृत्त और दुखी हो जाता है।
चौथी गं्रथि सामाजिक दुर्व्यवस्था संबंधी गं्रथि है। प्रतिकूल (बेमेल या छल-बल वाले) स्थान में समाज के उलटे-पुलटे (स्वेच्छाचारी) नियम भी वस्तुतः सुविधा प्रदान नहीं करते। जिन विषयों का इस रति से, प्रजनन से कोई संबंध नहीं है, वे सारे विषय भी इसके साथ जोड़ दिए जाते हैं। मसलन राजा के अंतःपुर में अनेक पटरानियाँ होती हैं। अब दुर्भाग्य से किसी दस्यु द्वारा बलपूर्वक किसी युवती का अपहरण कर बंेच दिया गया तो राजा के अंतःपुर में तो वह न किसी प्रकार का रतिसुख प्राप्त करने में समर्थ होती है, न भाव सुख, न षरीर सुख।
इस प्रकार जो सामाजिक दुर्व्यवस्था संबंधी गं्रथि है यह भी अनेक रूपों में प्रकट होती है और अपना प्रभाव दिखाती है। भारतवर्ष में ही नहीं पूरे विष्व में न इस झंझटों से मुक्ति का उपाय बहुत लंबे समय से कहीं व्यवस्थित कही अव्यवस्थित रूप से किए जा रहे हैं।
इसी क्रम में ब्रह्मचर्य की विभिन्न प्रकार की अवधारणाएँ विभिन्न आचार्यों, साधकों ने विकसित की हैं। ये विभिन्न प्रकार की अवधारणाएँ भी मन के भीतर गं्रथियों का निर्माण करती हैं। किसी के लिए ब्रह्मर्च ही ब्रह्मचर्य है। किसी के लिए वे सारे ऋषि जिनके बाल बच्चे पत्नियाँ होती थीं, वे भी ब्रह्मचारी हैं। उन्होनें भी सिद्धि प्राप्त की है। एैसे में सामान्य व्यक्ति सोचने लगता है कि आखिर सच्चाई क्या है? ब्रह्मचर्य का वास्तविक अर्थ क्या है? इस प्रकार विभिन्न अर्थों के बीच उलझे व्यक्ति के मन में ब्रह्मचर्य की अवधारणा विषयक एक अन्य प्रकार की गं्रथि उत्पन्न हो जाती है।
अगली छठी प्रकार की गं्रथि है कि मान लिया कि श्रद्धावष या अपनी किसी छोटी अनुभूति या किसी प्रमाण के आधार पर तय कर लिया कि ब्रह्मचर्य का अर्थ यही है, भले ही वह संगत हो या न हो। ब्रह्मचर्य की किसी एक अवधारणा को स्वीकृत करने की कोषिष भी होती है और व्यक्ति को सफलता भी नहीं मिलती है। परिणामतः उसके मन में असफलता की गं्रथि बन जाती है।
उपर्युक्त सभी गं्रथियों से भिन्न एक अलग किस्म की गं्रथि से भी मानव पीडि़त रहता है। वह कहे या न कहे आज इस अव्यवस्थित समाज में तो यह गं्रथि और भी विकृत रूप में व्याप्त है। स्पर्द्धा एवं आर्थिक दुर्व्यवस्था के युग में व्यक्ति चाहता है कि रतिक्रिया में वह तल्लीन हो, आनंदानुभूति तो प्राप्त करे लेकिन उससे संतानोत्पत्ति न हो क्योंकि संतान उत्पन्न होकर जिम्मेदारी पैदा करता है तो व्यक्ति की स्वलीनता, आत्मतल्लीनता, उसकी स्वार्थपूर्ण तथ्यविरोधी दृष्टि उसकी अपनी सुविधा में भी विघ्न पैदा करती है।
वह व्यक्ति चाहे आध्यात्मिक जीवन जीना चाहता हो या संासारिक, लेकिन बच्चे उसे विघ्न रूप में महसूस होते हैैं। यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि प्रायः संतानोत्पत्ति सामाजिक मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, इसलिए एक भी संतान न हो ऐसी अवधारणा तो विरले लोगों के मन में होगी लेकिन सहज संतानोत्पत्ति का जो भय है, यह  एक गं्रथि है जो प्रायः गृहस्थों के मन को प्रभावित करती ही रहती है।
ग्रंथियाँ अन्य प्रकारों की भी होती हैं लेकिन ध्यान से देखा जाये तो मूलतः इन्हीं सात गं्रथियों के स्वतंत्र या मिश्रित रूप में निर्मित हुई पायी जायेंगी। जैसे - एक अन्य प्रकार की ग्रंथि को भी समझा जा सकता है जो अपने भीतर सफलता एवं विफलता के अनेक रहस्यों को समेटे हुए है।
आज मानव सामाजिक विकास की एक विषेष अवस्था में पहुंचा हुआ है। उसने कई प्राकृतिक नियम भी बदल डाले हैं। सूचना माध्यमों का विकास हुआ है। भूमंडलीकरण, विष्वग्राम की परिस्थितियाँ उत्पन्न हैं। किंतु इसके विपरीत हमारी आत्मीयता का पर्याप्त विकास नहीं हो पाया है। जाति, कुल, परिवार, राष्ट्र् धर्म, संप्रदाय की श्रेष्ठता के आधार पर युद्ध लडे़ जा रहे हैं। आर्थिक-राजनैतिक धु्रवीकरण के प्रयास हो रहे हैं।
इस प्रकार आत्मीयता को यथार्थ से भिन्न, वैज्ञानिक आविष्कारों के विस्तार की दिषा के विपरीत संकुचित किया जा रहा है। परिणाम है मनोगं्रथियों का सृजन। परदेषी, परराष्ट््री युगल नागरिक आपस में मिलने न मिलने के संकट से जूझ रहे हैं।
       भ्रूण प्रत्यारोपण, टेस्ट-टयूब बेबी, माँ का गर्भ नानी, दादी के पेट में पोती का भ्रूण आदि। सहवासविहीन प्रजनन में वैज्ञानिक अविष्कारों के सभी नमूने मिलते हैं। धर्मषास्त्रियों, कानून के निर्माताओं को भी इस धारा के साथ रचनात्मक रूप से जुड़ना चाहिए था किंतु वे तो जुडे. नहीं उलटे नैतिकता की मान्यताओं पर एकाधिकार स्थापित किए हुए आलसी एवं स्वार्थी तत्त्व नाहक अनेक सामाजिक मनोगं्रथियों का निर्माण कर रहे हैं।
कन्या का भय इतना भयानक है कि भ्रूण-हत्या सुनियोजित रूप से की जा रही है। अरब देषों एवं समाज के संपन्न लोगों के लिए हैदराबाद के षहरी इलाकों में एवं अन्य के लिए राजस्थान, मध्य प्रदेष के सीमावर्ती बीहड़ो में औरतों की खरीद-बिक्री खुले आम हो रही हैं ये सभी ग्रंथियाँ ही तो हैं।
आध्यात्मिक साधना संबंधी उलझनें:-
        आज का आदमी कोई आदिम व्यक्ति नहीं है। उसका मन मस्तिष्क सामाजिक प्रेरणाओं, मूल्यों से प्रभावित होता रहता है। आदमी के मस्तिष्क में अनेक सूचनाएँ आती-जाती हैं, जो उसके व्यवहारों को नियंत्रित करती हैं। इन सूचनाओं का संकलन उसके वैयक्तिक विकास के साथ विविध घटनाओं के क्रम में हुआ है और उन घटनाओं ने मन के जटिल स्वरूप की संरचना की है।
मन को यदि विस्तृत अर्थ में लिया जाए तो उसके विविध क्रिया-व्यापारों को कई नाम देने पडे़ंगे जैसे-बुद्धि, धर्म, भावना, विवेक, इच्छा, संवेगात्मक अनुभूति, स्थान, भ्रम, मोह, उदासीनता सुख दुख आदि की अनुभूति, तटस्थता, उदासी, अपने आप में लीन होना आदि।
व्यक्ति का संपूर्ण व्यक्त्तिव उन्हीं मानसिक क्रियाव्यापारों द्वारा नियंत्रित होता है। साधारण आदमी सुधार एवं सफलता के लिए उपयुक्त रास्ते का चयन नहीं कर पाता है। कहाँ से प्रारंभ करें यह ज्ञान न होने के कारण बार बार कोषिष करने पर भी वह उलझता चला जाता है। जो लोग रास्ता बताने वाले हैं, उनमें से भी विरले लोगों को ही यह कला ज्ञात होती है। वे भी प्रायः सभी व्यक्तियों के लिए या पूरे समाज के लिए वर्गीकृत करके कुछ गिने-चुने फार्मूले निकाल लेना या उपाय एवं उनके नमूने तय कर लेना चाहते हैं और उन्हें ही षाष्वत नियम के रूप में घोषित करते रहते हैं।
इसी दृष्टिकोण के कारण विभिन्न सभ्यताओं के अपने भिन्न जीवन-मूल्य एवं आचार षैलियाँ होती हैं। जहाँ पुरुष से स्त्री की संख्या कम हो वहाँ बहुपति प्रथा उचित हो सकती है। इसी प्रकार जहां स्त्रियों की संख्या अधिक हो वहाँ तो बहुपत्नी प्रथा भी चल सकती है। लेकिन इन विषम परिस्थितियों को छोड़कर सामान्य रूप से, जिससे लोगों में आपसी सौहार्द्र, षांति बनी रहे बहुपत्नी या बहुपति प्रथा का वही सिद्धांत उपयुक्त नहीं हो सकता है।
यही समस्या आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में आ टपकती है कि भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, आदि अनेक षैलियों में किस षैली को प्रमुखता दें? या अध्यात्म साधना का प्रारंभ कहाँ से करें? जो लोग चक्रों एवं कंुुडलिनी के अस्तित्व पर विष्वास करते हैं वे भी आपस में बहस करते हैं कि कंुडलिनी का जागरण वस्तुतः कहाँ से होता है, आज्ञा, स्वाधिष्ठान या मूलाधार से? इसके साथ ही साथ अगर ध्यान से देखें तो ठीक इसी तरह से इन चक्रांे से संबद्ध मानसिक विषयों के बारे में भी बहस होती है। पहले वासना का दमन हो या साक्षात्कार किया जाय? पहले काम पर विचार किया जाय या धर्म पर? भावना में बहने की कोषिष की जाय या विचार प्रक्रिया के द्वारा अज्ञान और धर्म के कुचक्र को काट कर उतार फेंका जाय? तंत्र के लोग तो विचारों के जाल को बिल्कुल बेकार मानते हैं।    
       अभिनव गुप्त ने तंत्रालोक में लिखा है-
              ‘‘विचार जालं न षिवं प्रकाषयेत्।
               घटेन किं भाति सहस्रदीधीतिः’’।।   विचारों का जाल षिव को प्रकाषित नहीं करता घट से क्या कभी सूर्य चमक सकता है।
       इतना ही नहीं रतिसुख की पूर्ण अनुभूति के संदर्भ में लोग इसी प्रकार इन्हीं अवधारणाओं में उलझे होने के कारण भिन्न भिन्न तरीकों से प्रयास करते हैं। कोई कहता है, आज्ञा चक्र पर ध्यान रखकर कंुभक लगाकर सहवास किया जाए तो प्रगाढ़ अनुभूति होती है और ऊर्ध्वगमन होता है। कोई वज्रोली के साथ प्राण को ऊपर ले जाने की बात करता है। तथ्य यह है कि जबतक चक्र की भावनाओं एवं उनसे संबद्ध अनुभुतियांे के परस्पर  संबंधांे को ठीक से नहीं समझा जायेगा तबतक आनंदानुभूति या आध्यात्मिक उत्थान के लिए किसी व्यक्ति के अनुकूल क्या रास्ता होगा, यह निर्धारित नहीं किया जा सकता।
मेरी समझ से सबसे बड़ी बेवकूफी तो यह होगी कि सभी व्यक्तियों के लिए एक ही नियम बना दिया जाय और आषा की जाय कि सबका एक ही मार्ग से विकास एवं कल्याण हो जायेगा। यह सोचना भी एक प्रकार ग्रंथि ही है। यह ग्रंथि मानसिक, सांसारिक, आध्यात्मिक सारे पचड़ों के बहुतेरे अंषो को समेटे हुए है। अतः इसे यदि इसे मूल गं्रथि के रूप में पहचाना जाए तो अनुपयुक्त नहीं होगा। इसकी विस्तार से चर्चा समाधान के क्रम में आगे की गई है। अतः यहाँ केवल संक्षिप्त उल्लेख कर दिया गया है।











            विक्षेप खंड
             दूसरा अध्याय
33.लौकिकलोकोत्तरभेदबोधाभावे लोकोत्तरे अश्रद्धा मिथ्यात्वदृष्टिष्च।
        लौकिक एवं लोकोत्तर के भेद के बोध का अभाव होने से लोकोत्तर (योगज प्रत्यक्ष वाले) रतिसाक्षात्कार में अश्रद्धा एवं उसके (लोकोत्तर के)े झूठा होने की दृष्टि बनती है।      
       सामान्य आदमी को यह सुनकर विष्वास ही नहीं होगा कि अति सूक्ष्म मात्रा में हृदय के हर आघात के साथ रतिसुख का अनुभव होता रहता है। सूक्ष्म होने से सामान्यतः इसका बोध नहीे हो पाता है लेकिन ध्यान देने पर इसका अनुभव सभी को हो सकता है। दमा धड़कन आदि रोगों में इस सूक्ष्म अनुभव की कमी होने पर इसके अस्तित्व एवं महत्त्व का ज्ञान हो जाता है। यह एक प्रकार का आंतरिक एवं अति मृदु आघात है जिसके अभाव में जीवन का आनंद सहज और पूर्ण नहीं है। जो लोग पूरी साँस नहीं ले पाते हैं उन्हें जीवन का सहज मिलने वाला आनंद प्राप्त नहीं होता है। रतिक्रिया में भी स्खलन के समय पूरा रेचन स्वतः हो जाता है। पूर्णरेचन में यदि समस्या हो तो स्खलन का सुख भी ठीक से नहीं हो सकेगा।
       इससे आगे जो लोग नासिकाग्र दृष्टि के साथ प्राणापान पर एकाग्रता का गहन अभ्यास करते हैं उनका भी मूलाधार स्वयं गतिषील हो जाता है। अपरिचित या गुरुपरंपरा से हीन साधक इस गहन अनुभूति से प्रायः घबरा जाते हैं क्योंकि बहुत सारे लोगों की दृष्टि से तो यह अनुभूति पापमय है। उनके मन में स्खलन का भी भय बना रहता है। गुरु ही सीमित अनुभव को विराट तक पहुँचा कर उनकी अज्ञानता का निराकरण कर सकते हैं।
       जो लोग लौकिक सुख की प्रक्रिया से परिचित होने पर भी अलौकिक पक्ष से अपरिचित हैं उन्हें लगता है कि बिना घर्षण, मर्दन आदि के केवल ध्यान या प्राणायाम के बल पर लौकिक से भी सघन अनूभूति प्राप्त करने की बात केवल कपोल कल्पना है। ऐसी धारणा बनाते समय वे अपनी ज्ञान की सीमा को ही झुठला देते हैं कि उन्होंने योग या तंत्र में वर्णित विधि से न अभ्यास किया है न ही उन्हें कोई अनुभव है।

34.निषेधे दुराग्रहः।
        निषेध के प्रति लोगांे का दुराग्रह है।
      अज्ञानता कई अर्थो में हैं। पहली अज्ञानता यही है कि कई लोग रतिसुख को ही इंद्रिय का विषय मानते हैं। उनके लिए संभोग ही केवल रतिप्रक्रिया है। गंध, रूप, ध्वनि के महत्त्व को वे नहीं जानते हैं। प्रायः रतिक्रिया गुप्त रूप से भयभीत होकर  अधेरे में की जाती है। परिणामतः पर्याप्त सुख नहीं प्राप्त होता है जिससे तृप्ति हो सके।
       रतिभ्रंष के दो मुख्य कारण हैं-(क) अज्ञानता, (ख) दुराग्रह।
       क-अज्ञानता कई अर्थो में हैं। पहली अज्ञानता यही है कि कई लोग रतिसुख को एक ही इंद्रिय का विषय मानते हैं। उनके लिए संभोग ही केवल रतिप्रक्रिया है। वे गंध, रूप, ध्वनि के महत्त्व को नहीं जानते। प्राय रतिक्रिया गुप्त रूप से भयभीत होकर अंधेरे में की जाती है। परिणामतः पर्याप्त सुख नहीं प्राप्त होता, जिससे तृप्ति हो सके। भं्रष का अर्थ है बीच में टूट जाना। जब अज्ञानता के कारण यह प्रक्रिया बीच में टूट कर जुड़ती है तो एक गाँठ सी बन जाती है- जैसे रोषनी में किसी की देहयष्टि, शरीर की बनावट को ठीक से न देख पाने के कारण प्रायः लोग कपड़े के भीतर की बनावट के प्रति बहुत अधिक उत्सुक रहते हैं और दूसरी ओर इसे अष्लील भावना मानकर ग्लानि भी महसूस करते हैं।
      ख-दुराग्रह रतिप्रक्रिया की सबसे बड़ी बाधा है। दुराग्रह तथ्य से परे होता है, जैसे- रतिक्रिया या इसका भाव पापकर्म है, यह अपवित्र है, इससे जितना बचा जाय, जितना दमन किया जाय उतना ही अच्छा। कुछ लोग स्त्री के स्पर्ष से भी दूर रहना चाहते हैं। कुछ लोग स्त्री को मषीन की तरह देखते हैं, वे तृप्ति के स्थान पर केवल संतानोत्पत्ति तक ही स्त्री और पुरुष के संबंध के पक्षधर हैं। चूँकि रतिप्रक्रिया एक प्राकृतिक प्रक्रिया है अतः इसके निषेध का आग्रह दुराग्रह है, जो अनेक समस्याओं को जन्म देता है।
जो भी प्रक्रिया समाधान की जगह उलझनें पैदा करती हो वह अनुकरणीय कैसे हो सकती है? वस्तुतः प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए जिससे समाधान हो, षांति मिले न कि उद्वेग बढ़ाता जाय। अतः निषेध की भावना को उत्तम मानने का दुराग्रह नहीं पालना चाहिए।

35. अषांवबोधे कौतूहलविक्षेपादयः, परिचये षांतिः। एकेन्द्रियविषयसंयोगे चित्तस्य निमज्जनात् क्वचिच्छांतिः तथापि अन्येन्द्रियविषयद्वारेण पुनपुनः प्रतिसरणाषंका विक्षेपादिनाम्।
        अतः आंषिक बोध होने पर कौतूहल विक्षेपादि होते हैं और परिचय होने पर षांति। किसी एक इंद्रिय एवं इसके विषय के साथ संयोग होने पर कहीं-कहीं चित्त के एकत्र डूब जाने से षांति होती है किंतु अन्य इंद्रिय एवं विषयों के माध्यम से बार बार रति की प्रवृत्ति के फैलने तथा विक्षेप का खतरा रहता है।
      रतिप्रक्रिया से अनेक लोग गुजरते हैं। उनमें से अधिसंख्यक आंषिक साक्षात्कार ही करते हैं, चाहे पूर्ण साक्षात्कार की संभावना हो या न हो।
       आंषिक बोध होने से तृप्ति के स्थान पर उलझन बढ़ जाती है। मान लें कि किसी युगल ने मैथुन कर्म का परित्याग कर दिया हो किंतु चुंबन अलिंगन दिव्यापार में संलग्न हो, आपस में आकर्षक वार्ता कर रहा हो तो इससे मन को न तो षांति मिलेगी, न तृप्ति अपितु वेग बढ़ता जायेगा क्योंकि रतिसुख अनेक  इंद्रियों  एवम् आलंबनों के सहयोग से पूरा होता है किसी एक दो साथ नहीं। केवल रूप , स्पर्ष आदि किसी एक या दो आलंबनों में मन निमग्न भी हो जाय तो कभी-कभी थोड़े समय के लिए षांति महसूस होगी किंतु अन्य इंद्रियों के माध्यम से विक्षेपयुक्त आलंबन ग्रहण की प्रवृत्ति बार बार उत्पन्न होगी।
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        अतः आंषिक रतिक्रिया का सुख कभी भी पूर्ण षांति देने में सक्षम नहीं होगा।

आधुनिक यौन विज्ञान की सीमित दृष्टिः-
आधुनिक यौन विज्ञान की दृष्टि सीमित है। साथ ही वह भारतीय दृष्टि को समझ नहीं पाती है। जीवन की ऊर्जा का गणित उदाहरणों में एक है। जीवन एवं मृत्यु एक ध्रुव सत्य है। जीवन के अंतर्गत ही विपरीतलिंगियों का मिलन और प्रजनन आता है। योग की दृष्टि में और विशेषकर सिद्धों की मान्यता है कि यदि ऊर्जा का क्षय न हो चिर जीवन एवं ऊर्जा के संचय का सामर्थ्य हो तो मृत्यु पर विजय संभव है। सिद्धों के यहाँ सिद्धदेह की धारणा है, जिसे काटा या जलाया नहीं जा सकता। आधुनिक विज्ञान इसे गलत मानता है। इसी प्रकार रतिक्रिया के संदर्भ में विंदुपात की बात है। विंदुपात से ऊर्जा का क्षय होता है, मृत्यु होती है। विंदुधारण से चिर यौवन एवं चिर जीवन प्राप्त होता है। इस विषय को लेकर काफी विवाद है।
विंदुपात/ऊर्जाक्षयः-
मरणं विंदुपातेन जीवनं विंदुधारणात्।
विंदुपात से मरण एवं विंदुधारण से जीवन होता है।
योग एवं आयुर्वेद दोनों ने विंदुधारण को आदर्श माना है। विंदुधारण (वीर्य को स्खलित न होने देना) को आदर्श माना गया है जिसका परिणाम मृत्यु पर विजय है। इस विषय को ठीक से समझना चाहिए। विंदु शब्द को ठीक से समझना होगा। विंदु शब्द को भिन्न भिन्न दृष्टियों से देखने पर उसका सांदर्भिक स्वरूप दृष्टिगत होता है जो उसके पूर्णस्वरूप (योग तंत्र समत) का आंशिक अर्थ होता है। इस प्रकार केवल आंशिक अर्थ का ग्रहण कर समीक्षा की जाएगी तो केवल अनर्थ एवं अज्ञान का ही विस्तार होगा।
विंदु के अर्थः-
विंदु- अस्तित्व की अभिव्यक्ति का सूक्ष्मतमरूप/चेतना के साथ अस्तित्वबोध का सूक्षमतम रूप।
विंदु- रेखागणित का कल्पित सूक्षमतम भाग केवल अस्तित्व का बोधक होता है। उसकी परिभाषाएँ भी इसी प्रकार की होती हैं।
विंदु- पुरुष का वीर्य।
विंदु- धारणा/एकाग्रता के अभ्यास के लिए विंदु के रूप में बनाया गया चित्र।
अब यदि हम विंदु का अर्थ केवल वीर्य करें तो अनर्थ होगा ही। वीर्य स्खलन के संदर्भ में भी चेतना के विंदु को धारण करने पर तो आधुनिक यौन विज्ञानी ध्यान देते ही नहीं। कुछ क्षणों के लिए हृदयगति के अवरुद्ध होने के शुभाशुभ परिणाम का विवेचन इसलिए अभी संभव नहीं  हो सका क्योकि निगमनात्मक कमकनबजपअम प्रयोगों एवं परीक्षणों के लिए केवल विंदुपात के अनुभव से गुजरनेवाले लोगों पर ही शोध एवं अध्ययन हुए। विक्षेप के कारण जो नैसर्गिक प्रक्रिया में विघ्न या त्रुटि होती है, उसके दृष्परिणाम के रूप में होनेवाली शारीरिक एवं मानसिक विकृतियों की चिकित्सा की व्यवस्था आधुनिक यौन विज्ञान में की गई है। उस आधार पर आधुनिक यौन विज्ञानी विंदुरोध एवं उर्ध्वारोहण की संभावना तक का निषेध कर अपने ज्ञान को आंशिक अनुभव तक सीमित कर देते हैं।
उनकी दृष्टि रतिक्रिया के मानसिक पक्ष पर भी जब जाती है तो पीट्यूटरी से निकलनेवाले हारमोन एवं उनकी नियंत्रण प्रणाली तक ही उनका ध्यान मुख्य रूप से जाता है। संपेथेटिक ेमउचमजीमजपब चंतंेलउचमजीमजपब पारासेंपेथेटिकं नर्वस सिस्टम में बाहर से हारमोनयुक्त दवा के माध्यम से हस्तक्षेप अब एक सामान्य सी बात हो गई है। अनेक प्रकार की दवाएँ उपलब्ध हैं। कुछ मासिक चक्र को नियंत्रित करती हैं कुछ उत्तेजना बढ़ाती हैं, कुछ संभोगकाल को लंबा करने का दावा करती हैं।
इसी प्रकार प्रजनन को रोकनेवाली दवाएँ तो अनेक हैं ही। शल्य क्रिया से लेकर टेस्टटयूब बेबी तक का प्रयोग चल रहा है। इन सबके बावजूद सारा ध्यान स्खलन एवं प्रजनन तक सीमित है। आधुनिक यौन विज्ञान में विंदुरोध एवं ऊर्ध्वारोहण नहीं है।

36. अज्ञानां विज्ञत्वनिष्चये प्रापंचिकानां सौकर्यम्।
        मूर्ख जब विषेषज्ञ के रूप में निष्चित होते हैं तब प्रपंचियों को झूठ सच प्रपंच फैलाने में सुविधा होती है।
       ज्ञान की परंपरा के बाधित होने के अनेक कारण हैं, जिसमें मूर्ख का विषेषज्ञ सिद्ध होना भी एक है। इस दषा का लाभ अल्पज्ञ प्रपंची लोग उठाते हैं और अनर्गल बातों के प्रचार में उन्हें सुविधा होती है।
       मूर्ख एवं प्रपंची इन दोनों का प्रभाव क्षेत्र इतना प्रबल हो जाता है कि वास्तविक ज्ञान को जानने समझने में लेागों की रुचि ही नहीं रहती है। वस्तुस्थिति का जानकार व्यक्ति सत्य के प्रति पक्षधर होता है। वह केवल लोगों की रुचि एवं सुविधा के अनुसार ही नहीं बात कर सकता। जो मुर्ख हैं वे विषय को उलटा-सीधा किसी भी रूप में बता सकत हैं। अनावष्यक गोपनीयता एवं जटिलता के पर्दे में विषय को उलझाकर प्रपंचियों ने संसार को खूब ढगा है।

37.व्यवस्थायाम् प्रकृतिरेव प्रमाणम्। स्वस्वस्थानेषु षांतिः, भ्रंषे क्षोभः।
        रति की सम्यक् व्यवस्था बनाने के संदर्भ में (जो भी सिद्धान्त हैं उनमें) प्रकृति ही प्रमाण है। अपने अपने स्थानों पर षांति होती है, भ्रंष होने पर क्षोभ होता है।
       रति एवं इसकी प्रक्रिया के संबंध मंे जो भी नियम बताए जा रहे हैं वे तक्र या कल्पना पर आधारित न होकर अनुभव पर आधारित हैं। यह अनुभव भी सबको संभव है बषर्ते कि वह अनुभव के अनुकूल प्रयास करे और उसकी परिस्थति भी वैसी हो। कुल मिलाकर सार तत्त्व यही है कि अपने अपने स्थानेां पर अर्थात् इंद्रिय विषय एवं उभयपक्ष की अनुकूलता होने पर जो रतिप्रक्रिया होगी, उसमें षांति होगी। प्रेमी अपनी प्रेमिका के सौदर्य से अकेला तृप्त नहीं होता प्रेमी-प्रेमिका जब दोनो उभयपक्ष के साैंदर्यालंबन में डूबते हैं तो दोनों को सुख-षांति मिलती है। चँूकि सौंदर्य का रस सुख की दृष्टि से स्पर्ष आदि सुखों के केन्द्र अंतःकरण से जुड़ा रहता है अतः रूपसुख स्पर्षसुख के लिए सुखार्थी को सक्रिय भी कर सकता है और यदि सौंदर्य-सुख के भोग की आकांक्षा बलबती हो तो दोनों परस्पर दूसरे को देखते देखते तृप्त और षांत हो जा सकते हैं।
      इंद्रिय एवं विषयों के अपने अपने स्थानों की तरह युगलों के स्थान पर भी विचार करना जरूरी है। इंद्रियाँ आलंबन के रूप में दूसरे के रूप, रस, गंध आदि की अपेक्षा करती हैं। यदि यह अपेक्षा परस्पर हो तो परस्पर पूरकभाव विकसित होता है। यदि ऐसा न हो अर्थात् स्वस्थान से (स्वीकृति के स्थान से) अपेक्षा विचलित होकर भ्रष्ट हो जाती है तो इससे बेचैनी, घबराहट इत्यादि मनोरोग होते हैं। यह समस्या संपूर्ण जीवन पर हावी रहती है। जो युगल सहमति पूर्वक संतुष्ट होते हैं वे अपने समानवयवाले युगलों की रति का भी सुख स्थान समय के अनुसार भोग लेते हैं। दूसरे नायक नायिका के व्यापार से उन्हें अपने  सहभागी का सहज स्मरण होता है ओर अपनी अनुभूति में भी भ्रंष नहीं होता। वृद्धयुगल बाल-बच्चों का विवाह कर उनकी रति से अपनी रति का स्मरण कर पुलकित होते हैं। किषोरों की मूर्खता पर हँसकर प्रसन्न होते हैं। लेकिन यदि स्थानभ्रंष हो जाय तो सहमति के अभाव में  पूरकभाव खंडित हो जाता है। असफलता अतृप्ति को पैदा करती है, मन तृप्त होना चाहता है। अनुकूलता के अभाव में मन छल-बल का सहारा लेना चाहता है। छल-बल से भोक्ता के मन में एक ओर द्धन्द रहता है तो दूसरे सहभागी की लाचारी केवल उसे षारीरिक स्तर पर समर्पित ही करा पाती है। मानसिक पूरकभाव के अभाव में दोनांे की बेचैनी उलझन, एवं क्षोभ बढ़ते ही जाते हैं।
       इस तरह अपना युगलभाव सिद्ध रहने पर ही अन्यत्र युगलों में भी अपनापन का परोक्ष आरेाप होता है एवं दृष्य या श्रव्य माध्यम  परस्पर आनंद को बढ़ाते हैं। अन्यथा असहमत स्त्री या पुरुष को आलंबन बनाने से केवल समस्याएं बढ़ती जाती हैं। युगल भाव कहने का आषय किसी सामाजिक संरचना से नहीं है। समाज में अनेक प्रकार के अमानुषिक, अप्राकृतिक, छल-बल आधारित युगल संबंध प्राप्त होते हैं। वहाँ सहमति एवं पूरकभाव का अभाव होता है। यहाँ सहमति एवं पूरकभाव ही युगल स्थान का नियामक है संयोगिक या छल-बल पर आधारित युगल नहीं।
      केवल विवाह संबंध हो जाने मात्र से रति की सफलता अनिवार्य नहीं है। विवाह तो केवल युगलता एवं पूरकभाव की सामाजिक स्वीकृति है, जिसके आधार पर संतान की पहचान एवं उत्तराधिकार संबंधी प्रक्रियाएँ पूरी की जा सकें।

38.नैतत्केवली मानसिकी सृष्टिः प्रजननस्य
अन्यथाऽसंभवात्।
         रतिसाक्षात्कार की प्रक्रिया केवल मन में उत्पन्न होनेवाली नहीं है, अन्यथा प्रजनन ही असंभव हो जायेगा।
      कुछ भाव-प्रधान अतिवादी लोग रति को केवल मानसिक सृष्टि के रूप में देखते हैं। उनके दो प्रधान तक्र हैं-
    क- मन में रति का भाव न होने पर स्त्री-पुरुष का बोध ही नहीं होता, जैसे भीड़, नींद या किसी कार्य-विषेष में तन्मयता के समय विपरीत लिंगी का भान तक नहीं होता। इसका कारण यह है कि मन उस समय किसी दूसरे संकल्प की पूर्ति में तल्लीन होता है। एक प्रसिद्ध ष्लोक है-
       काम जानामि ते मूलं संकल्पात् किल जायसे।
       नाहं संकल्पयिष्यामि तेन त्वं न भविष्यसि।।
      ऐ काम! मैं तुम्हारी जड़ को जानता हूँ कि तुम संकल्प से उत्पन्न होते हो। अतः मैं संकल्प ही नहीं करूँगा और उससे तुम पैदा ही नहीं हो सकोगे।
   ख- जो साधक मूलाधार से ऊपर अपने भीतर के युगनद्ध रूप का साक्षात्कार कर उसी सुख में लीन हो जाते हैं वहाँ भी विपरीतलिंगी का षरीर तो होता नही है। अतः उनके लिए रतिसुख-केवल मानसिक  है।
       इस संबंध में तीन बातांे को ध्यान से समझने पर स्पष्ट हो जायेगा कि रति केवल मानसिक सृष्टि नहीं है।
     -सबसे बड़ी बात यह है कि संसार में सहज चलनेवाला संतानोत्पत्ति का कार्य ही  असंभव हो जायेगा। विकृत रति में रुचि रखनेवालों का प्रजनन सामर्थ्य धीरे धीरे समाप्त हो  जाता  है  और  सबलोग ऐसा ही करें तो संसार ही उच्छिन्न हो जायेगा।
       2-जबतक किसी आलंबन में मन लगा रहता है तब तक भले ही रति की आकांक्षा सुप्त रहे किंतु अवसर मिलते ही वह प्रगट हो जाती है। स्वप्न एवं निद्रा की अवस्था तक यह आकांक्षा जान नहीं छोड़ती। यदि मन षांत हो तो विपरीत लिंगंी के  स्पर्षादि से मन में रति का आकर्षण बिना प्रत्यक्ष उपस्थिति एवं तात्कालिक संकल्प के भी पैदा हो जाता है। कहा भी गया है-

       आहारनिद्राभयभैथुनंच
       सामान्यमेतत् पषुभिर्नराणाम्।
भोजन, निद्रा, भय और मैथुन पषु एवं मावन में समान रूप से है।
       3-आतंरिक अनुभव से गुजरनेवाले लेाग भी पुनः आकर्षित हो जाते है, ऐसी अनेक घटनाएँ हैं -
       विष्वामित्रपराषरप्रभृतयोः वातांबुपर्णाषनाः।।
       तेऽपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहंगताः।।
‘विष्वमित्र, पराषर आदि श्रर्षि हवा, पानी या केवल पत्तों को खानेवाले थे लेकिन वे भी स्त्री के सुंदर मुख कमल को देखकर मोह से ग्रस्त हो गए।’
       अंातरिक आलंबन के समय तो बाह्यालंबन पर एकाग्रता होते ही एकाग्रता का अभ्यासी अधिक बेचैन हो जाता है।
       जो पूर्णानंद तक पहुँच गए होते हैं उनके द्वारा भी प्रजनन कार्य के लिए रति की षारीरिक प्रक्रिया का आलंबन किया ही जाता है। केवल मानव या अन्य जीव ही बच्चे पैदा करते हैं न कि देवी देवता।

39.स्खलनोर्जाक्षयक्लेदानपेक्षितसंततिजननानि लोके दःुखोत्पादकानि।
        स्खलन, ऊर्जा का क्षय, थकान, बिना इच्छा के संतान की उत्पत्ति ये सभी संसार में दुख उत्पन्न करने वाले हैं।
      विक्षेप, भ्रंष एवं क्षेाभ की चर्चा की जा चुकी है फिर भी   सुविधा के लिए समझ लेना चाहिए कि दुःख को उत्पन्न करनेवाले कारक निम्न हैं-
      स्खलन आनंदित सभी होना चाहते है किंतु स्खलन से बचने के उपाय में ही सारे षास्त्र लगे हुए हैं चाहे वे सांसारिक हों या पारलैाकिक। ऊर्जाक्षय एवं क्लेद-क्योंकि स्खलन के साथ पूर्व संचित ऊर्जा क्षीण हो जाती है, थकान के कारण गहन विश्राम/ निद्रा की अपेक्षा बलवती हो जाती है। अनपेक्षित संतति-जनन- संतानप्राप्ति की वासना जितनी ही प्रबल होती है उससे भी दारुण होता है बिना अपनी मर्जी के संतान का उत्पन्न होना। यह पीड़ा स्त्रियों को    सर्वाधिक होती है। स्त्रियों का सबसे बड़ा संकट यही है। जो पुरुष प्रजनन में पूरे भाव से जुड़ते हैं उनकी पीड़ा भी स्त्री की ही भाँति होती है क्योंकि भरण-पोषण का दायित्व तो उठाना ही पड़ता है। इस प्रकार उपयुक्रत, जो सांसारिक रति के सहजीवी कारक हैं वे दुःख को उत्पन्न करनेवाले हैं। इस दुःख को रति से हटाने के प्रयास में मानव दीर्घकाल से लगा है और आज भी उसका प्रयास जारी है।

 40.  न तत्र प्रकृतिः हेतुः लोकप्रपंच एव कारणम्।
     इस प्रसंग में प्रकृति कारण नहीं है, संसार का अपना प्रपंच ही कारण है।
      ये जो दुख पूर्वसूत्र 39 में बताए गए वस्तुतः उनका कारण प्रकृति नही है अपितु संसार का अपना प्रपंच है। यह प्रपंच मुख्य रूप से निम्न प्रकार है-
       -सृष्टि की प्रक्रिया को न जानते हुए भी  जानकारी का
        विष्वास या प्रचार।
       -अल्पज्ञान एवं अधूरा आचरण।
       -जानते हुए भी प्रकृति के नियमों के विपरीत जाने
        का असफल प्रयास।
       राज्यव्यवस्था, समाजव्यवस्था या धर्मव्यवस्था चाहे वह जो भी हो सृष्टि की व्यवस्था पार नहीं कर सकती क्योंकि मानव इस सृष्टि का एक छोटा भाग है। समाज व्यवस्था भी उससे छोटी है अतः वह प्रकृति की बड़ी  व्यवस्था का विरोध करने का सामर्थ्य ही नहीं रखती। सृष्टि की व्यवस्था के नियमों के ज्ञान के बाद अपनी मर्जी से उस सीमा में थोड़ा बहुत परिवर्तन मानवीय सामर्थ्य के भीतर की
की बात है अन्यथा मानवीय संबंधों की जो भी व्यवस्था बनती है वह कल्पना पर आधारित होती है, यथार्थ पर आधारित नहीं। बेमेल या असमय विवाह काल्पनिक आदर्ष की दृष्टि से मलेर उचित हो सकता है किंतु प्रकृति की व्यवस्था की दृष्टि से क्षोभ, कलह अषांति से लेकर हत्या, मृत्यु जैसे संकटो का कारण बनती है, यह सुविदित तथ्य है।
      इस प्रकार ज्ञात/अज्ञात प्रपंच में ग्रस्त होकर कोई यदि पीडि़त व्यक्ति है तो उसका कारण संसार का प्रपंच है न कि प्रकृति में कोई ऐसी अंतर्निहित व्यवस्था है जो मानव को पीडि़त करती है।

41. षरीराधिकरणेधिष्ठितानां मूलाधारप्रभृतिनां रतिषुद्धौ परस्परापेक्षा न केवलं मूलाधारस्यैवाधिकारः।
     षरीर रूपी अधिकरण में स्थित मूलाधार आदि चक्रों की परस्पर अपेक्षा होती है। केवल मूलाधार का ही एक मात्र इस क्षेत्र में अधिकार नहीं है।
       मूलाधार चक्र पुरुष में लिंग एवं गुर्दों के बीच कुछ ऊपर में अनुभूत किया जाता है। इस प्रदेष में स्थित गं्रथि को भौतिक दृष्टि से मूलाधार संबंधी अनुभूतियों को ग्रहण करनेवाला केंद्रविंदु समझा जा सकता है। तांत्रिक परंपरा में मूलाधार को पृथ्वी तत्त्व का स्थान कहा जाता है और इसी प्रकार विविध परंपराओं मंे यंत्रों-मंत्रों द्वारा इसकी अभिव्यक्ति/प्रस्तुित की जाती है। यहाँ इन पारिभाषिक षास्त्रीय विषयों की चर्चा अपेक्षित नहीं है।
       मूलाधार चक्र के साथ तो रतिसुख का सीधा संबंध है किंतु अन्य चक्रों के साथ भी इसका परोक्ष संबंध है। इस संबंध में रतिसुख के साथ कल्पना, तक्र, धारणाओं एवं अन्य मानसिक षक्तियों, क्रिया व्यापारों के माध्यम से षारीरिक संपक्र,  किसी आदर्षवाद या काल्पनिक मान्यता के बिना भी संभोग की अनूभूति होगी। मन के स्तर पर संवेदना एवं कल्पना दोनों का आपसी संबंध होगा। किसी एक प्रक्रिया की कमी की क्षतिपूर्ति दूसरी प्रक्रिया द्वारा किए जाने का भ्रम या संतोष निरूपित होगा। कोई यदि अंतिम मानसिक प्रक्रिया (जो निणार्यक है )एवं रतिक्रिया के किसी अन्य व्यापार को अंतिम  क्षण तक एक साथ में जीना चाहे तब भी अन्य चक्रों की अनुकूलता रतिसुख में अनुकूलता का सृजन करती है और अन्य चक्रों की प्रतिकूलता चित्त विक्षेपादि के माध्यम से षीध्रपतन, प्रगाढता के स्थान पर अनुभूति की तरलता का दंष पैदा करती है। विविध चकों्र की अनुकूलता एवं प्रतिकूलता की प्रक्रिया अत्यंत गंभीर एवं व्यापक विषय है। फिर भी सूत्र रूप में इतना समझ लेना चाहिए कि जागृत चक्र अनेक प्रकार के नियत्रंण की क्षमता पैदा करते हैं। यह नियत्रंण षारीरिक एवं मानसिक तथा मिश्र तीनों प्रकार से होता है। अतः व्यक्ति अपनी आवष्यकता के अनुकूल रुचि/परिस्थिति के अनुरूप अपनी क्षमता का उपयोग कर सकता है। विभिन्न चक्रों की स्थिति एवं उनकी कार्य-प्रणाली के बारे में आचार्यो में काफी मतभेद है और बिल्कुल अक्षरषः सत्य की भाँति कहना संभव नहीं है क्यांेकि यदि प्रयोगों एवं अनुभवों के आधार पर निष्कर्ष निकालने की कोषिष की जाए तो यह निर्णय कर पाना ही मुष्किल हो जाता है कि किस व्यक्ति का कौन सा चक्र किस सीमा तक संवेदनषीन या जाग्रत हुआ है। फिर भी कुछ प्रचलित मान्यताओं एवं नए आचार्यों की दृष्टि को ध्यान में रखकर तुलना की कोषिष की जा रही है। कुंडलिनी के बारे में आम आदमी की पहुँच की भाषा  में विषयवस्तु की  रखने का  लोगांे ने कोषिष की है, उनमें मेरी दृष्टि से सर्वश्री महामहोपाध्याय  गोपीनाथ कविराज, स्वामी सत्यानंद सरस्वती एवं उनके षिष्य गण,  रजनीष का उल्लेख अत्यंत जरूरी है। अन्य आचार्यों का योगदान भी है किंतु रतिसुख के संबंध में भी स्पष्ट निरूपण करने का प्रयास इन आचार्यों द्वारा किया गया है। अतः उनके विवेचन से विषेष मदद ली गई है। मूलाधार के स्तर पर जो आनंदानुभूति होती है, वह स्पष्ट रूप से रतिसुख है। उसके ऊपर उठने पर भी जब तक स्त्री-पुरुष का भेदभाव व्यक्त्तिव में है तब तक दोनों के मिलन एवं भेद विगलन की तन्मयता तक रतिसुख का क्षेत्र है। स्वाधिष्ठान में ही वस्तुतः उत्तेजना घनीभूत होकर चेतना के साथ ऊपर चढती, है जो पहले मूलाधार से चलकर स्वाधिष्ठान में रुकती है। प्रवाह के समय मूलाधार के स्तर पर भेद- बोध  न होने से  उस अनुभूति की पहचान स्वाधिष्ठान में भेद बोध होने पर होती है इसलिए कुछ लोग स्वाधिष्ठान को ही वास्तविक अनुभूति का आधार मानते हैैं। पाचन तंत्र एवं अपान वायु का क्षेत्र होने के कारण मूलाधार क्षेत्र के नाडि़यों पर सबसे करीब से स्वाधिष्ठान प्रभाव डालता है। वैसे यदि पेट साफ न हो, गैस की बिमारी हो तो षीघ्र स्खलन की आषंका अत्यंत प्रबल रहती है।
       इस विषय को विस्तार से समझना जरूरी है इसलिए दो लघु षीर्षकांे के अंतर्गत इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

क-मूलाधार चक्र रति/सुरति
ख-मूलाधार चक्र का अन्य चक्रों से संबंध।( इस विषय पर विस्तृत चर्चा उद्धार खंड के सूत्र संख्या 51 में उपलब्ध है। अतः उसे वहीं पर पढ़ लिया जाए।)
   क-मूलाधार चक्र रति/सुरति
       मूल प्रश्न यह है कि मूलाधार चक्र का आखिर रतिसुख से सबंध क्या है? मेरी समझ से मूलाधार का स्थूल रतिसुख से लेकर प्रथम चरण के आध्यात्मिक (उदात्तीकरण की परंपरावाले स्खलनकालीन ) रतिसुख से सीधा एवं अनिवार्य संबंध है। स्त्री पुरुष जब उत्तेजित होते हैं तो उस समय शरीर का यह प्रदेश रक्त से भर जाता है, व्यक्ति का ध्यान इस क्षेत्र पर केंद्रित होने लगता है। आकंुचन एवं प्रसारण की क्रिया इस प्रदेश में होने लगती है। केवल वीर्य प्रवाहिका एवं रजः प्रवाहिका नाडि़याँ के आस पास की मांसपेशियों में खिँचाव बना रहता है और ग्रथियाँ षैलियाँ संकुचित होकर रज या वीर्य का प्रवाह करने की अवस्था में नहीं होती हैं। योनि या लिंग में जो स्पर्शज अनुभूति होती है, उसी सीधे यही प्रदेश ग्रहण करता है और मस्तिष्क को भेजता रहता है। स्खलन के समय अचानक पूरा भाग शिथिल हो जाता है एवं वीर्य/रज प्रवाहिका नलियों में शिथिलता आ जाती है एवं स्खलन की प्रक्रिया पूरी होती है।
       आत्मरति वाली प्रक्रिया में यदि हठयोग की बाहरी प्रक्रिया अपनाई जाएगी तो स्खलन न होने के अतिरिक्त सारी बातें षारीरिक रूप से समान होगीं मानसिक संकल्प एवं दृष्टिकोण का अंतर सूक्ष्म रूप से नाड़ी संस्थान पर अपना प्रभाव डालता रहेगा। ध्यानयोग वाली प्रक्रिया में स्थूल से सूक्ष्मतम स्तर की क्रियाएँ व्यक्ति भेद या अवस्था भेद से होगीं। किसी के साथ पूरी क्रिया होगी, किसी के शरीर में आंशिक या किसी के शरीर में केवल मानसिक अनुभूति के स्तर पर क्रिया होगी। भूतशुद्धि या तत्त्व शुद्धि’ की प्रक्रिया से भी इसका सीधा संबंध है। पृथ्वी तत्त्व विषयक धारणा स्पस्ट एवं शुद्ध नहीं होने से चित्त में तमो व्याप्त रहता है, उदात्तीकरण तो दूर सांसारिक सुख भी गहरा नहीं हो पाता। चूँकि सामान्य व्यक्ति बिना भूतशुद्धि किए अत्यंत चंचल चित्त से सांसारिक जीवन जी रहा है। अतः इस बात की उसे जानकारी नहीं रहती किंतु जो योग/तंत्र की साधना के साथ रतिसुख का लौकिक/परलौकिक उपयोग करना चाहते हैं उनके लिए मूलाधार चक्र जागरण हेतु पृथ्वी तत्त्व को शुद्ध करने की नितांत आवश्यकता है।
       स्खलन कालीन अनुभूति के साथ एक मनोकायिक रहस्य छुपा है, जिसकी चर्चा अन्यत्र नहीं की गई है। यही सारी प्रक्रिया को समझने का मूल सूत्र है। रतिसुख की अंतःकरण अनुभूति होती है में अर्थात मन मस्तिष्क एवं त्त् संबंध सूक्ष्म मनोकायिक प्रक्रिया में उससे संबद्ध शरीर की न तो पूर्ण संलग्नता आवश्यक है न त्याज्य। घर्षण (मंथन) एवं एकाग्रता ) (विलोड़न सुख या नव नीतिका)  (दो प्रमुख प्रक्रियाएँ है) शेष की केवल अनुभूति हो सकती है।  मेरी वैखरी वाणी/शब्दावली उसे व्यक्त करने में सक्षम नहीं है। पाठक अपनी अनुभूति या कल्पना शक्ति की मदद लें ) यह घर्षण मन के भीतरी सतहों में प्राणायाम द्वारा/चाहे प्राणायाम संकल्प द्वारा आयोजित हो या स्वतः ध्यान की प्रक्रिया द्वारा आयोजित हो, अति प्राकृतिक रूप से अनजाने भी होता है और जननांगों में संकल्प तथा प्रयास के द्वारा भी होता है। प्राचीन साधकों ने दोनों प्रक्रियाओं की अलग अलग अनुभूति की और समग्र प्रक्रिया का भी साक्षात्कार किया है। उनका भ्रम दूर हो गया है। उन्होनें मानवता पर कृपा कर इस रहस्य को उदघाटित किया। साधारण आदमी उस मानसिक साक्षात्कारात्मक परमसुख को कैसे समझे? कैसे शीध्र उसकी आध्यात्मिक आनंदानुभूति तक पहुँच हो? उस परम आनंदानुभूति के करीब की अनुभूति कौन सी हो यह विचार कर सांसारिक मैथुन सुख की तुलना की गई। लोगों के मन में मैथुन सुख के प्रति सहज एवं प्रबल आकर्षण को देखकर साधक शिक्षकों ने निर्णय किया कि इसी परंपरा से क्यों न साधना सिखाई जाय और तब वीर्य-स्खलन उसका निरोध एवं वज्रोली आदि की क्रियाएं विकसित र्हुइंं। रतिसुख निरूपण के समय इस क्रिया की चर्चा की जा चुकी है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया कि मूलाधार तक रतिसुख संबंधी मूल मानसिक योजना का प्राकृतिक विन्यास है। इस प्रकार मूलाधार चक्र को कामवासना एवं इससे संबद्ध पाशविक (प्राणिजगत की भाँति) क्रियाओं का केंद्र माना गया। हमारे बाह्य जीवन के आधार ही होते हैं वे लोग, जिनसे हम भूत, (माता-पिता) वर्तमान (पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका) एवं भविष्यकालीन (संतति) रति संबंधी रिश्ते से जुड़े होते हैं। इस प्रक्रिया की कई समानतायें है, जिनके कारण मूलाधार तथा इसे नियंत्रित/शुद्ध/जाग्रत करने के साधन के रूप में मूलबंध का करीबी रिश्ता है। मूलबंध  में  जब संकल्पपूर्वक बंध का अभ्यास किया जाता है, तब मन में स्थित पूर्व धारणा  के समानांतर एवं स्वसंकल्प नियोजित धारणा (कार्यक्रम की व्यवस्था) बनती है और व्यक्ति वास्तविक रति क्रिया के समय भी स्खलन से अपने आपको बचा लेता है एवं अन्य क्षेत्रों में उत्तेजना की सघनता से उत्पन्न ऊर्जा को निर्दिष्ट करता है। मूत्रमार्ग में रबर का पाइप डालकर पानी या अन्य तरल पदार्थ को चूसने का अभ्यास  भी कुछ लोग करते हैं।
       मैं किसी भी प्रयास या प्रकार की निंदा करना नहींे चाहता और पात्र की परिस्थिति के अनुरूप मार्ग सही होता ही है। फिर भी जबतक उच्च मनोभूमियों के प्रति श्रद्धा/जिज्ञासा एवं समर्पण का विकास नहीं होगा, मूलाधार संबंधी ये क्रियाएँ केवल कामवासना विषयक कुछ गंथियों, रोगांे के निवारण तक ही सीमित हो जायेंगी। उल्टे यदि ऊर्जा के प्रवाह को उर्ध्वमुख करने की कोशिश नहीं की गई तो अन्य बीमारियाँ भी पैदा हो सकती हैं। केवल स्मृति मात्र से भी इसी प्रक्रिया को दुहराया जा सकता है। स्वयं स्मृति करने पर संकल्प संबद्ध हो जाता है। शारीरिक क्रिया की भूमिका कम होने पर भी मानसिक संलग्नता की मात्रा बढ़ जाती है। इस प्रकार रतिक्रिया एवं रतिसुख की बहुत ही सकारात्मक भूमिका तंत्र की साधना में मान्य है। फिर भी यदि उत्तेजना पर नियंत्रण पाने की जगह उत्तेजना की चपेट में व्यक्ति की आत्मछवि आ जाए और वह अनुकूल परिस्थिति में नहीं हो तो अनेक प्रकार के सामाजिक संकट खड़े हो जाते है जो भयानक विघ्न उपस्थित करते हैं। हठयोग की दृष्टि से भी देखंे तो जो लोग प्रायः मूलबंध, वज्रोजी आदि उपायों की बात करते हैं। वहाँ भी वज्रोली के पहले मूलबंध एवं अश्विनी मुद्रा की मिलावट रहती हैं। गैर तकनीकी भाषा में कहें तो पहले मलमूत्र के वेग को रोकने के उपाय बताए जाते हैं।    गुप्तांगों के आसपास की मांसपेशियों एवं नसों को आकुचित करने के तरीके सिखाए जाते हैं। चूँकि शुक्रवाही नाडि़यों एवं उससे संबद्ध आसपास के भागों पर सीधा नियंत्रण कर पाना प्रारंभिक   साधक के लिए अत्यंत कठिन होता है। आकुंचन की क्रिया करते समय मलमार्ग, मूत्रमार्ग एवं शुक्रमार्ग तीनों को लोग एक साथ सकुंचित करते हैं, जिससे अनेक जटिलताएँ पैदा हो जाती हैं। इसी कारण से इस मार्ग में गोपनीयता का महत्त्व है। कुल परंपरा परिवारिकता के कड़े बंधन बनाये गए। रक्त संबंधों के समान या उससे भी अधिक गुरु-शिष्य परंपरा को महत्त्व दिया गया। अभ्यास एवं प्रयास में असफलता भी सफलता की तरह ही संभावित है तब उत्पन्न संतान को कौन स्वीकार करे। ये सब बातें मूलाधार को स्वस्थ/सहज रूप में क्रियाशील बनाने में सहायक होती हैं। मूलाधार से भिन्न ग्रथियों की भूमिका के निरूपण के समय इन बातों की चर्चा की गई है।
       रति क्रिया के दौरान नसों एवं मलमार्ग को संकुचित करने की आवश्यकता होती है। मूत्रमार्ग से स्वतः संबद्ध रतीन्द्रिय स्वतः उत्त्ज्ञेजित होते हैं और मिलावट न्यूनतम होती है, जिससे साधक के मन में अधिक स्पष्ट छवि उभरती है। प्रारंभिक अवस्था के साधक यदि अश्विनी मुद्रा का अधिक अभ्यास करने लगें तो अपानवायु का स्थूल प्रवाह अवरूद्ध हो जायेगा। पेट में हल्की गड़बड़ी होने पर भी अपानवायु गर्मी पैदा और धक्का मारकर शुक्र को वेग के साथ बाहर कर देगा , जिससे आनंदानुभूति की जगह अफसोस एवं बेचैनी आदि पैदा हो जाएंगे। पेट को सामान्य स्वास्थ्य तक पहुँचा कर यदि नैसर्गिक क्रिया के द्वारा उत्तेजना पैदा करने की कोशिश की जाए तो ऐसा संकट नहीं आता है। वास्तविक मानसिक विघ्न तो भय है, जो ग्लानि-बोध एवं सामाजिक अस्वीकृति के कारण उत्पन्न होता है। सामाजिक स्वीकृति के मुद्दे पर अन्यत्र विचार किया जायेगा।
     
        पाचन तंत्र, मूत्रप्रवाह-प्रणाली, छिपी हुई कामवासना विषयक मनोगंथियों एवं उनकी जटिलता से उत्पन्न रोग, इन  सबोंका मूलाधार से गहरा संबंध है। मूलाधार को जाग्रत/नियंत्रित करने से ऐसी सभी बीमारियाँ दूर होती हैं। अतृप्त रतिसुख के कारण उत्पन्न पारिवारिक कलह दूर होते हैं।  संतानोत्पत्ति की प्रक्रिया सुखद, आनंददायिनी, आत्मीतापूर्ण एवं उच्च भूमि में सेवामयी हो जाती है।
     
       अब रही बात यह कि मूलाधार चक्र के जागृत हो जाने के बाद भी क्या इस क्रिया की कोई  सार्थकता बची रह जाती है? इस विषय को समझने के लिए विभिन्न संवेगात्मक एवं भावनात्मक अनुभूतियों के परस्पर संबंध तथा विभिन्न ग्रंथियों के आपसी संबंधों को समझना होगा। आगे का मामला भले ही विवादास्पद हो, जिस पर विचार किया जाएगा लेकिन इतनी बात स्पष्ट हो गई है  कि आस्था और स्वीकृतिपूर्वक आध्यात्मिक उन्नति के लिए रतिसुख एवं रतिक्रिया का उपयोग किया जा सकता है। रही बात पाखंड और बेईमानी की, तो पाखंड और बेईमानी को मानकर कोई शास्त्रीय विचार करना संभव नहीं है। विचार वस्तुस्थिति का किया जा सकता है, अवास्तविक परिस्थितियों का नहीं। अब मानवीय अनुभूतियों से ऊपर की चर्चाओं का संक्षिप्त स्मरण किया जा रहा है। व्यष्टि शरीर की कार्य प्रणाली के बारे में जिज्ञासु साधक को देश एवं कालाध्वा, महाकाल, श्री-यंत्र के दोनो प्रकार के रूपों, उनमें तन्मात्राओं के संयोजन, सदाशिव के संकल्प, वज्र, घंटायोग वसंततिलक योग आदि को समझना होगा। शाक्त, बौद्ध एवं शैव तंत्र साहित्य में इस विषय पर प्रचुर विवरण/चित्रण उपलब्ध होता है।         मूलाधार का महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि जो लोग यह मानते हैं कि कुंडलिनी मूलाधार में तीन लपेटे मारकर सोई हुई है  उनके लिए सबसे अपरिहार्य साधना मूलाधार में कुंडलिनी को जागृत करना है। मूलाधार में जागृत कुंडलिनी संबंधी अनुभूतियों की कई उपमाएँ दी गई हैं। यहां महत्त्व का निरूपण ही प्रमुख है, उपमाएँ नहीं। रतिसुख घनीभूत होकर आत्म-अस्तित्व-प्रवाह रूपी अस्तित्व की उच्च आनंदधारा में बदल जाता है और ऐसा लगता है मानो वह किसी भी आयाम, जिनका उस समय अस्तित्व होता है, की सीमा को नहीं स्वीकार करे। कुछ लोगों के अनुसार व्यक्ति (शिव, चेतन रूप में साक्षी होता है) कुंडलिनी का अनुभव करता है, वह कुंडलिनी शक्ति या ऊर्जा तत्त्व का एक (तुलनात्मक रूप से)  परिष्कृत रूप होता है। अतः व्यक्ति उसके सामर्थ्य से डर जाता है। समाधान है, अर्द्धनारीश्वर की भाँति अपनी चेतना में विद्यमान स्वतंत्र अस्तित्व बोध को (अहंकार को) उस ऊर्जा के हवन कुंड में अर्पित कर देना। आलिंगन से बढ़कर समरस हो जाना और अर्द्धनारी-नटेश्वर की स्तुति में लग जाना (यदि दीर्घकाल का अभ्यास हो तो)।
       ‘‘सोहं ’’ ‘‘हंस: ’’ जप के द्वारा सरल सज्जन लोगों का बहुत शीघ्र मूलाधार स्पंदित/सक्रिय हो जाता है। तंत्र परंपरा से भिन्न धारा के लोगों के मन में भी इस अजपा के प्रति बहुत श्रद्धा है। अजपा की इस प्रक्रिया को लोगों ने ‘‘सुरति’’ नाम भी दे रखा है। यह ‘‘सुरति’’ मूलाधार से अनाहत तक चलती रहती है। इसके बाद क्रिया बंद, अभ्यास बंद, केवल  स्वरूप का साक्षात्कार चलता है।

42.तथैव रतिसुखोपलब्धौ उभयाभयाकर्षण- संयोगविषयेन्द्रियसंतुलनव्यवस्थायां  विक्षेप- हानादुच्चतरानन्दभूमिलाभः।
         उसी प्रकार रतिसुख की उपलब्धि में दोनो विपरीतलिंगियों का  अभय , दोनों के प्रति परस्पर आकर्षण, संयोग, विषय तथा इंद्रिय संबंधो में संतुलन की व्यवस्था होने पर आनंद-भूमि की प्राप्ति होती है।
       जैसे पूर्वसूत्र की व्यवस्था में विविध चक्रों के अंर्तसंबंधांे को स्पष्ट करते हुए क्रमषः उच्चभूमियों में प्रतिष्ठा की चर्चा की गई उसी प्रकार सांसारिक रति-प्रक्रिया में निम्न घटकों के संतुलन की व्यवस्था की जाय तो धीरे धीरे आनंद की उच्चतर भूमियाँ उपलब्ध होती जाती हैं-
       -परस्पर दोनों में अभय हो अर्थात् छल या बल का प्रयोग न हो। व्यक्तिगत या सामाजिक कोई भय न हो। आकर्षण हो। यह आकर्षण भी अप्रासंगिक/एकांगी न हो-जैसे केवल पद का आकर्षण, धन का आकर्षण, कुल का आकर्षण, रूप, रस, स्पर्ष आदि में से किसी एक का ही आकर्षण।
       - आकर्षण के साथ संभोग हो। यह अभय एवं आकर्षण का नियम सर्वत्र अंतर्निहित है।
        -विषयेन्द्रिय संयोग की व्यवस्था हो।
       बंद अंधेरे कमेरे में कोई युगल रूप का सुख कैसे प्राप्त कर सकेगा? कलहरत युगल मन से समर्पित नहीं होगंे, अस्वस्थ युगल षारीरिक प्रक्रिया का सुख नहीं भोग सकते अतः इंद्रिय-विषय-व्यवस्था अनिवार्य है।  जब ऐसे व्यवस्थायुक्त वातावरण में युगलों का मिलन होगा तो    धीरे धीरे आनंद गहरा एवं उच्चकोटि का होता चला जायेगा। संस्कारस्थित, अवषिष्ट विक्षेप स्वतः समाप्त होते चले जायेंगे।



43. अपूर्ण संयोगे अतृप्तिजन्याकर्षणा-
दसकृदुद्वेगादयः न च षांतिः न च सुखम्।
        संयोग अपूर्ण होने पर अतृप्ति से उत्पन्न आकर्षण के कारण बार बार उद्वेग उत्पन्न होते हैं, इससे न तो षांति होती है और  न ही सुख।
       बहुतेरे लोग भोग द्वारा षांति पर विष्वास नहीं करते क्योंकि दुर्भाग्यवष या तो भोग की परिस्थिति एवं साधन ही उन्हें उपलब्ध नहीं होते या उन्हें प्रक्रिया का ज्ञान नहीं होता। ऐसे लोग  प्रायः निम्न आरोप लगाते हैं-
       न जातु कामः कामानामुपभेागेन शाम्यति।
       हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते ।।
सुष्कंेधन इवानलः।
 जैसे अग्नि में सूखी लकड़ी डालने से अग्नि बढ़ती ही जाती है वैसे मानव की भोग की आकांक्षा भोग से षांत न होकर आाग की तरह वेग से बढ़ती जाती है।
       यह उदाहरण एकांगी है, जो केवल विक्षेपदषा के बारे में संगत है। विचारणीय यह है कि भोग की आकांक्षा एवं भोग की प्रक्रिया से विरोध क्या अनिवार्य है? भोग की आवृत्ति कहाँ अनिवार्य है कहाँ आवष्यक एवं कहाँ निषिद्ध?              
       भोजन करने से तृप्ति एवं स्वास्थ्य प्राप्त होते हैं। भूख षांत होती है। पुनः षरीर की अपेक्षा होने पर भूख लगती है। इसमें बुराई क्या है बुराई तो अतृप्ति में है, रात दिन भोजन के पीछे पागल होेने में, व्यर्थ भोजन की इच्छा का दमन करने के ढोंग में है। यथानुरूप भोजन सही तरीके से करने से भूख व्यवस्थित, संतुलित एवं कल्याणकारी हो जाती है।
      इस प्रकार रति एक ऐसी उपलब्धि है, जिसका उदारीकरण एवं  उदात्तीकरण होने पर वह सूक्ष्म एवं व्यापक रूप ग्रहण कर विराट की अनुभूति कराने में सक्षम है। अतः सही प्रक्रिया का ज्ञान आवष्यक है। उसके अभाव में वही दुर्दषा होगी।
      गीता में भगवान, श्री कृष्ण ने कहा है-
      नात्यष्नतस्तु योगोस्ति नचैकांतमनष्नतः।
      न चाति स्वप्नषीलस्य ज्राग्रतो नैवचार्जुन।।
      युक्ताहारविहारस्ययुक्तचेष्टस्य कर्मसु।
      युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।
      अति भोजन करने वाले, अति उपवास करनेवाले, अति सोनवाले किसी भी अतिवादी के योग नहीं हे। आहार, विहार स्वप्न, जागरण (आदि जीवन के व्यवहारों) में जो व्यक्ति युक्त होता है, योग उसके दुखों को दूर करनेवाला होता है।
     युक्त का ही षब्दार्थ है जुड़ा हुआ, अभिप्रेत अर्थ है उपयुक्त, सम्यक, संतुलित युक्त के वास्तविक स्वरूप को बताना ही षास्त्र एवं विषेषज्ञ का दायित्व है।