शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

प्रयास की दृष्टि से एक सीधा वर्गीकरण

 प्रयास की दृष्टि से एक सीधा वर्गीकरण
योग साधना की विधियों के अनेक वर्गीकरण किये जाते हैं। ये वर्गीकरण भी कई बार उलझा देते हैं खाशकर जब किसी एक ही धारा में कई विरोधी शैलियों की साधना की जाती हो। आसन ये ले कर ध्यान तक में यह दुविधा देखी जाती है। किसी के लिये आसन-प्राणायाम आदि का अभ्यास बहुत जरूरी है किसी के लिये सामान्य किसी के लिये न के बराबर। यही बात जप, मुद्रा आदि के मामले में भी आ जाती है।
जब कोई नया आदमी मेरे पास समझने-जानने आता है तो मैं प्रयास की दृष्टि से एक सीधा वर्गीकरण बताता हूं। 1- करने की प्रधानता वाला, 2- होने देने की प्रधानता वाला, 3- होने की प्रधानता वाला। इनमें सबसे गहरी अनुभूति होने की है। यह सबसे प्रामाणिक है। इसमें व्यक्ति स्वयं प्रमाण है कि वह वैसा हो गया। वह न केवल जान गया बल्कि वैसा हो गया। यह पद्धति/विधि आसन से ले कर ध्यान समाधि तक भी लागू हो सकती है। इस पद्धति से अभ्यास करने के लिये पहले होने देने की पद्धति से अभ्यास करना होता है। 
इसके लिये किसी विशेष प्रयास की जगह अपने शरीर या वातावरण में स्वतः हो रही घटनाओं को स्वीकार करने की साधना करनी होती है। अपनी सांस का अनुभव करना इस मार्ग की सबसे प्रचलित विधि है। इसे तो अनेक लोग जानते हैं लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि बिना संकल्प एवं प्रयास के अनेक आसन, प्रणायाम, मुद्रा, बंध, जप आदि जटिल क्रियायें सीखीं एवं अनुभूत की जाती हैं। आज भारत की इस सबसे प्रामाणिक, सरल एवं सुगम विधि को सिखाने वाले बहुत कम लोग हैं। इस मार्ग पर लोगों का विश्वास ही नहीं होता कि बिना प्रयास के कैसे कोई क्रिया या अनुभव संभव है? पिछली शताब्दी में ही मेरे गृह जिले भोजपुर में एक अनपढ़ संत हुए ध्यानयोगी श्री मधुसूदनदास जी। वे इसी विधि का प्रयोग करते थे। मौन में ही सारी शिक्षा, वह भी करने की नहीं, बस होने देने की और हो जाने की। यह सब पूर्णतः पारिवारिक रूप से होता था। घर के 5 साल से 95 साल तक के सदस्यों तक के लिये बस एक विधि कि कहीं दरी बिछा कर शरीर के लेटने-लोटने तक का फासला रख कर बस आंखमूंद कर बैठिये। आगे का का सारा अभ्यास स्वतःं।
मैं अपने नास्तिक मित्रों को या जो विशुद्ध अनुभव अभ्यास करना चाहते हैं, उन्हें यही विधि बताता हूं। इसी प्रकार जो मेरे अनन्य हैं और प्रतीज्ञा करते हैं कि जब तक अनुभव न हो जाय उस विषय पर कोई योग-तंत्र या आध्यात्मिक साहित्य नहीं पढूंगा उन्हें इसी विधि से सिखाता हूं। 
इसके भी कुछ नकारात्मक प़क्ष हैं, जैसे- ऐसे अभ्यासी को केवल भावनाप्रधान या कल्पना प्रधान बातों से आप न गुमराह कर सकते हैं न रोक सकते हैं। बहानेबाजी की सुविधा समाप्त हो जाती है। बच्चे-बच्चियों में इतना आत्म विश्वास बढ़ता है कि वे सवाल पर सवाल पूछने लगते हैं और कई बार उत्तर भी देते हैं क्योंकि उम्रदराज लोगों की तुलना में वे जल्दी सीखते हैं। यह तो सामाजिक संकट हुआ। खतरा तब होता है जब कई बार शरीर के स्वतः संचालित कार्य प्रणाली में कल्पनातीत परिवर्तन होने लगता है। इसे रोकना या नियंत्रित करना बहुत कठिन होता है। दूसरे मार्ग के अभ्यासी गुरु इसे रोक ही नहीं पाते। क्रमशः...

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